समसामयिक विषयों पर अक्सर डिबेट कराने के लिए कुख्यात, मुआफ कीजिएगा, विख्यात एक टी.व्ही. चैनल के द्वारा पिछले दिनों रोजमर्रा के जीवन में उपयोगी चीजों के कीमत में हो रही कमरतोड़ वृद्धि के विषय पर एक बड़े झगड़े मेरा मतलब है डिबेट का आयोजन किया गया, जिसमें समाज के सभी वर्ग के भुक्तभोगी लोगों को शामिल किया गया। इसमें सभी भुक्तभोगियों ने अपने-अपने विचार खुलकर प्रकट किए। आइए जानते हैं, इस डिबेट की हाईलाइट। महंगाई में सबका साथ अपना विकास
एंकर
साथियों, जैसा कि आप सभी देख रहे हैं आज महंगाई अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई है। पूरे देश में बढ़ती हुई महंगाई के कारण आजकल देश का आम और ख़ास, अमीर-गरीब, नेता-जनता, स्टूडेंट-एम्प्लॉयी हर कोई त्रस्त है। हमारे रोजमर्रा के जीवन में उपयोग में आने वाली चीजों की कीमत में आई अचानक की तेजी से सबका बजट बुरी तरह से गड़बड़ा गया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस बार की महंगाई के पीछे पेट्रोल या डीजल की बढ़ती हुई कीमतों का कोई रोल नहीं है, बल्कि वे दोनों तो बेचारे आज खुद शर्मिंदा हैं। खाद्य तेल, जीरा, चना और दाल ही नहीं, टमाटर, लहसून, अदरक, धनिया, मिर्ची सबके सब उन्हें मुँह चिढ़ा रहे हैं।
महंगाई में सबका साथ अपना विकास
वे तो शतक पूरा करने तक न जाने कितने बदनाम हो गए थे, जबकि आज टमाटर, लहसून, अदरक शान से नाबाद दोहरा शतक मार चुके हैं। आज ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ वाली कहावत सचमुच में चरितार्थ हो रही है। पहले जब कभी ऐसी स्थिति निर्मित होती थी, तो विपक्षी दलों के शोर मचाने पर सत्ताधारी दल के पास यही एक परमानेंट और घिसा-पिटा बहाना होता था कि इसकी वजह पेट्रोल और डीजल की बढ़ती हुई कीमत है, जिसका निर्धारण अंतराष्ट्रीय मार्केट के आधार पर तय होता है। परंतु इस बार ऐसा बिलकुल भी नहीं है। बेचारे पेट्रोल और डीजल की कीमत तो पिछले लगभग सालभर से लगभग स्थिर है। तो आइए, आज हम शुरू करते हैं अपना कार्यक्रम और बारी-बारी से सुनते हैं हमारे आमंत्रित अतिथियों की भड़ास मेरा मतलब है उनकी राय।
प्रमुख विपक्षी दल के प्रवक्ता
आज पूरे देश में कहीं भी सरकार नाम की कोई चीज दिख नहीं रही है । हर क्षेत्र में अराजकता का माहौल है। देश में ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ वाली स्थिति है। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि हमारे दैनन्दिनी के उपयोग में आने वाली लगभग सभी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। अब तक आप और हम यही सुनते आ रहे थे कि ‘घर की मुर्गी, दाल बराबर।’ अब यह कहावत उल्टा हो गया है ‘घर की दाल, मुर्गी बराबर।’
आज देश की जनता त्रस्त है। वह उस पल को कोस रही है, जब उसकी मति मारी गई थी, और उसने इन्हें वोट दिया था। चुनाव नजदीक है। हमारे देश की जनता भोली भाली नहीं है, वह बहुत समझदार है। वह सब जानती है। अगले चुनाव में वह इन्हें ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार बैठी है।
सत्ताधारी दल के प्रवक्ता
देखिए, विपक्षी दलों का तो काम ही है विरोध करना, सरकार के विरुद्ध जहर उगलना। हम मानते हैं कि विगत कुछ महिनों में कई चीजों की कीमत में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है।
प्रमुख विपक्षी दल के प्रवक्ता ने बीच में टोकते हुए कहा :- कुछ नहीं आदरणीय, बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है।
सत्ताधारी दल के प्रवक्ता झुंझलाते हुए बोले
देखिए नेताजी, आप पहले मेरी पूरी बात सुनिए, बीच में यूं टोका-टाकी मत करिए। हमारी पार्टी का मलमूत्र, सॉरी, माफ़ कीजिएगा, मेरा मतलब मूलमंत्र है- सबका साथ, सबका विकास। आप लोगों ने शायद गौर नहीं किया है कि इस बार जिन-जिन चीजों की कीमतों में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी हुई है, लगभग वे सभी कृषि उत्पाद ही हैं। चावल, आटा, खाद्य तेल, जीरा, चना, टमाटर, लहसून, अदरक, धनिया, मिर्ची, साक-सब्जियां सबके सब कृषि उत्पाद ही हैं। मतलब ये कि इसका सीधा फायदा हमारे देश के अन्नदाता किसान को मिल रहा है, तो ये किसान विरोधी विपक्षी दलों के पेट में मरोड़ हो रही है।
दरअसल विपक्ष नहीं चाहता कि किसानों को उनकी मेहनत का पूरा लाभ मिले। आप लोगों ने अखबारों में पढ़ा होगा, न्यूज़ चैनलों में भी देखा होगा कि पिछले कुछ दिनों में कई किसान टमाटर, लहसून और अदरक बेचकर करोड़पति बने हैं। क्या किसानों का करोड़पति बनना अच्छी बात नहीं है ?
विधानसभा चुनाव में किन मुद्दों पर होगी तकरार ? कौन है सत्ता का दावेदार?
प्रमुख विपक्षी दल के प्रवक्ता
आदरणीय नेताजी, दो-चार किसान करोड़पति बन गए, ये बात आपको पता है, पर लाखों किसान और मजदूर दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं। ये आपको नहीं दिख रहा है।
सत्ताधारी दल के प्रवक्ता
माननीय महोदय, ये बीते दिनों की बातें हैं। आज हमारे प्रदेश में कोई भी व्यक्ति भूखों नहीं मर रहा है। हमारे कार्यकाल में जनता की आर्थिक स्थिति बहुत तेजी से बढ़ी है। हमारी सरकार कमजोर तबके के लोगों के लिए अनगिनत योजनाएं चला रही है। एक, दो रुपए प्रति किलो के भाव से अनाज दे रही है। कंट्रोल रेट पर शक्कर, गुड़, चना, दाल और नमक दे रही है। हम नियमित अंतराल पर लोगों के बैंक खातों में नगद पैसे जमा करा रहे हैं, ताकि उनकी शाम मेरा मतलब है जीवन गुलजार हो। हमारे कार्यकाल में जनता की क्रयशक्ति बढ़ी है। यह महंगाई नहीं है जनाब, बल्कि विकास की प्रक्रिया का एक प्रमुख चरण है।
महंगाई में सबका साथ अपना विकास
हम लोग अपने किसानों को उनके पसीने की वाजिब कीमत दिलाने की कोशिश कर रहे हैं। तो इसमें बुरा क्या है ? रही बात अचानक वृद्धि की, तो इसमें विपक्षी दलों और पड़ोसी मुल्कों के कुछ विघ्नसंतोषी लोगों की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता। वे चुनावी वर्ष में हमारी सरकार के विरुद्ध माहौल तैयार करने के लिए जमाखोरों के साथ मिलकर ऐसी अप्रिय स्थिति निर्मित कर रहे हैं। पर हम उन्हें मुंहतोड़ जवाब देंगे। उनके नापाक मंसूबे पूरे होने नहीं देंगे। हम उनकी असलियत सबके सामने लाकर ही रहेंगे।
एंकर
ये तो हुई बात प्रमुख विपक्षी दल के प्रवक्ता और सत्ताधारी दल के प्रवक्ता की। आइए, अब हम जानते हैं बारी-बारी से इस बढ़ती हुई महंगाई के बारे में देश की जनता की राय।
किसान
पहली बार हमें लग रहा है कि हमारी भी कोई इज्जत है। महंगाई पहले भी बढ़ती थी, पर उसका लाभ हमें नहीं मिलता था। अब जब कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ रही हैं, तो लोगों को तकलीफ हो रही है। क्यों ? हमारे खून-पसीने की कोई कीमत नहीं है क्या ? पंद्रह साल में ही पेट्रोल की कीमत 25 रुपए से बढ़कर 102 रुपए प्रतिलीटर हो गई, लोगों ने उसका उपयोग बंद किया ? बीस साल में सोना पांच हजार से बढ़कर साठ हजार रुपए प्रति दस ग्राम हो गया, लोगों ने खरीदना बंद किया क्या ? नहीं ना ? अब जब टमाटर, धनिया, लहसून, नीम्बू, अदरक की कीमतें बढ़ रही हैं, तो हर कोई विधवा विलाप करने लगा है।
क्यों आखिर क्यों ? यह सच है कि आजकल कुछ ज्यादा ही पूछ-परख बढ़ गई है हमारी। सब्जियों की कीमत भी हमें पहले की अपेक्षा डेढ़ से दो गुनी ज्यादा मिल रही है। इससे हमारी आय बढ़ रही है। अब जब सब्जियों की कीमत चिकन से भी ज्यादा हो गई है, तो हम भी मजे से चिकन बिरयानी और फिश करी का मजा ले रहे हैं। हां, एक चीज हमारी समझ से परे है कि जब हम सब्जियां 40-45 रुपए प्रति किलोग्राम बेच रहे हैं, तो वह ग्राहकों को डेढ़ से दो सौ रुपए प्रति किलोग्राम कैसे पड़ता है ? यह भी आश्चर्य की बात है कि आजकल टमाटर से कम कीमत पर टमाटर की सॉस कैसे मिल जा रही है ?
विद्यार्थी
कृषि उत्पादों की कीमतों में बढ़ोत्तरी होना अच्छी बात है। किसानों को उनका हक़ मिल रहा है। अब उनका जीवन स्तर भी सुधरेगा। हमारा क्या है ? हम तो हॉस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं। वहां मेस के मेनू में आजकल थोड़ा-सा बदलाव दिख रहा है। टमाटर की जगह सॉस का उपयोग हो रहा है । तड़का में जीरा कम प्याज ज्यादा दिख रहा है। पतली दाल को गाढ़ी बनाने आलू का उपयोग किया जा रहा है। सब्जियों की कलर कुछ चेंज हो गई है। गनीमत है कि अब तक आलू, प्याज, पनीर और दही अपनी औकात में ही हैं, मतलब उनकी कीमत ज्यादा बढ़ी नहीं है। महंगाई का हमें एक लाभ यह भी हो रहा है कि अब हमें मेस में हफ्ते में एक दिन की बजाय तीन दिन नानवेज खाने को मिल रहा है।
आम ग्राहक
हमारा तो भगवान ही मालिक है। हम लोग अपने खान-पान पर और कितना संयम रखें ? हफ्ते में कितने दिन उपवास रखें ? रोज-रोज सूखी रोटियाँ गले से कैसे उतरें ? हम तो जैसे-तैसे गटक भी लें, पर बच्चों का क्या ? बिना सब्जी के कब तक ? कब तक आलू-प्याज से ही काम चलायें ? रोज रोज नानवेज खाना भी ठीक नहीं है न।
अब तो सब्जी वाले भी हमसे ढंग से बात नहीं करते। सरकार कुछ पैसे हमारे खाते में डालती तो है, पर इस घटाटोप महंगाई के सामने वह ऊँट के मुंह में जीरा के समान ही होती है। जीरा का नाम आते ही याद आया कि जीरा खाए कई महीने बीत गए ? पता नहीं अब कब जीरा देवी के दर्शन होंगे ? होंगे भी या नहीं ?
नौकरीपेशा
आपको तो पता ही है कि सरकार के लिए सबसे नरम चारा होता है बेचारा नौकरीपेशा आदमी। कहने को तो उसे बारह महीने सेलरी मिलती है, परन्तु सच्चाई यह है कि उसकी डेढ़ से दो महीने की सेलरी तो इनकम टैक्स की भेंट चढ़ जाती है। हर 6 महीने में 3-4 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़ता है, पर महंगाई ? उसकी तो कोई सीमा ही नहीं ? जीवनभर ईमानदारीपूर्वक नौकरी करने के बाद भी हमारे बुढ़ापे की कोई गारंटी नहीं ? 20 साल की नौकरी या 50 साल के बाद कभी भी निपटने की आशंका ?
जबकि देश के विधायक और सांसद महज 4-5 साल पद पर रहकर जीवनभर का बंदोबस्त कर लेते हैं। शानदार लाइफटाइम, देश-विदेश भ्रमण, पेंशन और अन्य सुविधाएँ अलग से। संसद और विधायिका की कैंटीन में वे जिस कीमत में पेटभर मटन बिरयानी और चिकन करी ठूंसते हैं, उस कीमत में हमें हाफ कप चाय नहीं मिलती। नॉमिनल रेट पर भरपेट राजसी खाना। अपने हाई-फाई वेतन-भत्ते पर कोई इनकम टैक्स भी नहीं।
फुटकर सब्जी विक्रेता
अच्छा लग रहा है। जिस क्वांटिटी में हमारा डेली का टर्न ओवर कभी महज हजार रूपए का होता था, आजकल वह डेली बीस-पच्चीस हजार तक पहुँच गया है। स्वाभाविक है हमें फील गुड हो रहा है। पहले कभी 5-10 रुपए प्रति पाव धनिया, टमाटर, अदरक बेचते हुए शर्मिन्दगी महसूस होती थी, आज उसी धनिया, टमाटर, अदरक को 45-50 रुपए पौवा बेचते हुए बहुत अच्छा लगता है। अब तो अच्छे पढ़े-लिखे ग्राहक भी हमें सर कहकर सब्जियों के भाव पूछने लगे हैं। हालांकि खरीददारों को भले ही कीमत दस गुनी ज्यादा चुकानी पड़ रही है, परन्तु हमारी कमाई महज 30-35 ही बढ़ी है। बाकि सब तो किसान और बिचौलियों के हाथ ही लगती है।
मांस-मछली विक्रेता
पिछले कुछ महीनों में चिकन-मटन की बिक्री में तीन से चार गुनी तक बढ़ोत्तरी हुई है। लोग दो सौ रुपए प्रति किलो टमाटर या परवल खरीद कर खाने की बजाय एक सौ साठ रुपए प्रति किलो चिकन या मछली खाना पसंद कर रहे हैं। अच्छा है अब मुर्गा और मुनगा, परवल और चिकन के बीच का अंतर मिट गया है। इसलिए हम तो कहते हैं सेम रेट में घास फूस खाने की बजाय चिकन-मटन खाईये, सेहत बनाइए। सावन को भूल जाइए। वह तो अगले साल फिर से आ जाएगा, पर ऐसा गोल्डन चांस दुबारा शायद नहीं आएगा। सरकार ही नहीं हमारा भी नारा है – सबका साथ सबका विकास। इसलिए आप-सब भी इस विकास के भागीदार बनें। आप आगे बढ़ेंगे तभी तो देश भी आगे बढ़ेगा।
एंकर
तो दोस्तों, अभी आपने देखा कि महंगाई के सम्बन्ध में देश के विभिन्न वर्गों की राय। यह आपको कैसा लगा, कॉमेन्ट बॉक्स में अपनी प्रतिक्रिया जरूर व्यक्त करें और हाँ, इस बढ़ती हुई महंगाई के सम्बन्ध में अपने विचारों से हमें भी जरूर अवगत कराएं। तो अब हमें दीजिये इजाजत नमस्कार, खुदा हाफिज, गुड बाय।
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
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