हम अपनी भाषा में गुनगुना रहे हैं अपना संगीत
हमारे गुनगुनाने से चन्द्रमा अपनी कलाएं बदलता रहता है!
हमारा नृत्य हमारी आत्मा के थिरकने का संकेत है
हमारा श्रृंगार हमारे आत्मभिमान का प्रतीक!
हम अपना फावड़ा अपने साथ रखते हैं, अपनी तगाड़ी अपने कंधे पर लाद कर चलते हैं
हमारी कुल्हाड़ी पर जंग लगा हुआ देखकर
इस निर्लज्ज समय में भी
बेफिक्र होकर सारी रात सुस्ताती है जंगल की देह!
हम अपना प्रेम अपनी मुठ्ठी में दबाकर चलते हैं
देह की गांठ से पहले मन की गांठ खोलते हैं
हम अपनी प्रेमिका के जूड़े में नहीं चाहते खोंचना कोई जंगली फूल, हमारे बच्चे जानते हैं
पहाड़ की ऊंची चोटी पर खिलने वाले जंगली फूल पर पहला हक पहाड़ का होता है!
फूल झर कर मिल जाना चाहते हैं पहाड़ की मिट्टी में
बीज बनकर फिर, फिर उगने व महकने के लिए!
पेड़ के पत्ते हवा में लहराते हुए गाते हैं अपनी ही मस्ती में
गुड़ दुम गुड़ दुम बाजा बाजली जैसे गीत
हमारी धीमी चाल देख खुलकर सांस लेती है धरती की
जर्जर हुई देह
कीट-पतंगें उल्टे पाँव लौट जाते हैं अपनी,अपनी दुनिया में!
पानी से ज्यादा प्रेम पिया है हमारी इस आदिम देह ने
हमारी देह का नमक धरती की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए सबसे अचूक औषधि है।