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कट्टरपन एक मानसिक बीमारी है-अजय तिवारी

by satat chhattisgarh
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अल्पसंख्यकों मेँ वह गिरोह को जन्म देती है, बहुसंख्यकों मेँ भीड़ को

मनोविज्ञान के आधार पर देखेँ तो कट्टरपन एक मानसिक बीमारी है। वह अपराध की ओर ले जाती है। अल्पसंख्यकों मेँ वह गिरोह को जन्म देती है, बहुसंख्यकों मेँ भीड़ को। भिन्नता या पृथकता उसे बर्दाश्त नहीँ है। बेगाने अजनबियों से अपनापन महसूस करना और पड़ोस के ‘विधर्मी’ या ‘विजातीय’ को दुश्मन समझना उसकी प्रवृत्ति बन जाती है। उसके लिए अपने मतवाद से अलग किसी तथ्य, तर्क, इतिहास और वास्तविकता का अस्तित्व नहीं होता

लेकिन वास्तविक इतिहास यह सीख देता है  सामाजिक जीवन मेँ ऐसा कट्टरपन व्यापक रूप में तभी फैलता है जब शासक वर्ग संकट मेँ पड़ता है और उस संकट का समाधान नहीँ निकाल पाता। घनघोर ब्राह्मणवादी शुंग वंश हो या भयानक दमनकारी औरंगज़ेब का शासन हो या उदारीकरण के बाद का भारत ही क्योँ न हो, इतिहास के तीनोँ कालों मेँ हम इस बात के ठोस साक्ष्य देखते हैँ।

समाज के भीतर पनपने वाला असाध्य संकट

वास्तव मेँ वह समाज के भीतर पनपने वाला असाध्य संकट होता है जो एक शासन या सत्ताधारी वर्ग की दमनकारी नीतियोँ मेँ प्रकट होता है और दूसरी तरफ जनमानस को कट्टरपन के आधार पर विभाजित करने की कार्रवाई मेँ व्यक्त होता है। इस बात का फ़ायदा जनता को नहीँ होता, शासक वर्ग को होता है।

रेखांकित करने की ज़रूरत है कि “सत्ता” छोटी चीज़ है, शासक वर्ग बड़ी चीज़। अपने अस्तित्व के लिए शासक वर्ग एक-दूसरे से भिन्न सत्ताओं की अदला-बदली करता रहता है। ज़्यादा दूर न जाएँ, आज़ाद मेँ कॉंग्रेस हो या जनता पार्टी, संयुक्त मोर्चा हो या वर्तमान की एनडीए और इंडिया–सभी यहाँ के पूँजीवाद के शासकीय मंच हैँ।

सरकार कोई बनाए, जिस तरह पहले बिड़ला-टाटा-डालमिया का बोलबाला रहता था, उसी तरह उदारीकरण के बाद अम्बानी-अदानी जैसे याराना पूँजीवाद का बोलबाला रहता है। किसी-किसी खास पूँजीपति या घराने से सत्ता की चिढ़ हो सकती है और उसके कारण वस्तुगत उतने नहीँ जितने आत्मगत होते हैँ।

लेकिन पूँजीवादी वर्गहितों की सेवा मेँ सब एक होते हैँ। देश के पहले “बड़े” भगोड़े शराब और हवाई सेवा वाले विजय माल्या को पूर्व प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री के पत्रोँ के आधार पर बैंकों ने वह क़र्ज़ दिया था जिसे हज़म करके भागने से पहले वह अगली, विरोधी दल की, सरकार के वित्तमंत्री और कानूनमंत्री से संसद मेँ शिष्टाचार भेंट करने गया था! जिस अम्बानी और अदानी को वर्तमान सरकार के साथ याराना के लिए लक्षित किया जाता हैं, गाहे-बगाहे मेँ भी यह लापरवाही करता हूँ, उनका प्राथमिक उत्थान पिछली सरकारों के समय हुआ था और बदलते माहौल मेँ उन्होंने दलगत पाला बदल लिया। अगर कल सरकार बदल जाएगी तो इन “याराना” पूंजीपतियों के कुछ नुकसान होगा, यह सोचना भ्रम है।

पूँजीपति दलगत पाला बदलते रहते हैं

मतलब यह कि सत्ताएँ बदलती रहती हैँ, पूँजीपति दलगत पाला बदलते रहते हैं लेकिन पूँजीवाद के वर्गहितों को कोई हानि नहीं पहुँचती है। नुकसान जिसे उठाना पड़ता है वह है श्रम करने वाली जनता: किसान, आदिवासी, औद्योगिक मज़दूर, दिहाड़ी मजदूर, खोमचेवाले, घरेलू नौकर-नौकरानियाँ, बेहुनरमन्द कामगार, बेरोजगार नौजवान, “गन्दे” कामोँ मेँ फँसे दलित, कचरा बिनने वाले बच्चे, चौराहों पर भीख माँगने वाले बुड्ढे-बच्चे-हिंजड़े, छोटे उद्यमी और खुदरा दुकानदार, वगैरह!

इस पीड़ित समुदाय का भी एक बड़ा हिस्सा शासक वर्ग द्वारा फैलाए जाने वाले कट्टरपन के असर मेँ रहता है। इसीलिए उनके हितोँ का शत्रु शासक वर्ग अपनी व्यवस्था निर्बाध चलाए रखने मेँ सफल होता है।

इस परिदृश्य का सबसे दुःखद पहलू यह है कि व्यवस्था को बदलने वाले एक तो आपस मेँ लड़ते रहते हैं क्योँकि उनमेँ शुद्धतावाद की भयानक बीमारी है। दूसरे, उन्हें बदनाम और बर्बाद करने में शासक वर्ग की सभी शक्तियाँ एकजुट हो जाती हैं। उन्हें परिवर्तन करने के इच्छुक कुछ उग्रवादी तत्वों का समर्थन भी मिल जाता है।इसके दो उदाहरण अत्यंत प्रत्यक्ष हैँ।

बीजापुर प्रवास पर मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल

अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को निकालने के अमरीकी अभियान मेँ भारत के अति-वामपंथियों ने भी पूरा समर्थन किया था; पश्चिम बंगाल से वाममोर्चा सरकार को अपदस्थ करने के शासक वर्ग के षड्यंत्र मेँ कॉंग्रेस, तृणमूल, संघ, आनन्द मार्ग, इस्लामी कट्टरपंथी, नक्सलवादी सब एकत्रित थे।

बेशक़, इसका मौक़ा खुद वामपंथ की अगुआ पार्टी माकपा के “बौद्धिक” महासचिव प्रकाश करात की अव्यवहारिक अदूरदर्शी नीति से मिला। इस मौके को पूँजीवाद वर्ग हितोँ के पैरोकारों और उनके ‘क्रांतिकारी’ चाकरों’ ने हरगिज़ नहीं गँवाया। नतीजा देख लीजिए। उदारीकरण की पहली लहर के बाद 2004-05 तक वामपंथ भारत के राजनीतिक पटल पर तेज़ी से उभर रहा था लेकिन 2009-से उसका पराभव शुरू हो गया। माकपा के गोर्बाचेव प्रकाश करात ने एक बार नहीं सोचा कि गाँव-गॉंव में फैले इक्के-दुक्के कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को किस असहाय स्थिति से गुजरना पड़ता है।

फिर भी मेँ जनता हूँ कि इतिहास का चक्र रुकता नहीं। दुनिया में अंतर्विरोध हैँ और दुनिया बदल रही है, समाज मेँ अंतर्विरोध हैँ और समाज भी बदल रहा है। जौसे ताक़तवर सामंतवाद का अंत हुआ वैसे ही विश्वव्यापी पूँजीवाद का भी अंत होगा। लेकिन इतनी सरलता से नहीं होगा।

ये ग़म के और चार दिन, सितम के और चार दिन।
ये दिन भी जाएँगे गुज़र गुज़र गये हज़ार दिन!!

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