भारतीय राजनीति में पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाना मात्र एक संयोग या प्रचलित औपचारिकता का पर्याय न होकर उनके शिष्टाचार, रचना धर्मिता और स्वातंत्र्योत्तर भारत में उनकी महत्वाकांक्षा सहित तथा निष्पक्ष भूमिका का परिणाम है। भारतीय संस्कृति की जड़ों तक उनका ज्ञान और विलक्षण वाक्-शैली उनको एक अलग राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित करती है। यह उनके ज्ञान और सर्जन का ही परिणाम था कि सभी दल के राजनेता उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत से ही उनका आत्मीय सम्मान करते थे। वे विपक्ष में युवा नेता थे, तो भी पं. नेहरू का स्नेहभाजन बने रहे और आगे चलकर वे इंदिरा गांधी की धुर विरोधी पार्टी में होने के बावजूद इंदिरा गांधी का आदर व सम्मान अर्जित करते रहे।
वाजपेई जी को प्राप्त यह बिरला आदर उनके ज्ञान, कर्म, सृजन, व्यवहार और राष्ट्र प्रेम के कारण ही था। उनके राजनीतिक जीवन में उनके सृजनधर्मिता उपस्थिति ही उनको को आकर्षण का केंद्र बनाती है। रचनाकार से राजनीतिज्ञ होने तक के सफर का सबसे प्रभावी पड़ाव है उनका काव्य सृजन पक्ष, जो कि उनको परिवार से मिला था।
वाजपेयी जी ने स्वयं लिखा है की कविता उन्हें विरासत में मिली। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अपने जमाने के जाने-माने कवि थे। उनके पिता द्वारा रचित काव्य-प्रार्थना ग्वालियर रियासत की स्कूलों में रोजाना गई जाती थी। घर पर साहित्यिक वातावरण का प्रभाव ही था कि उनके बड़े भाई पंडित अवध बिहारी वाजपेई भी कविता करने लगे। अटल जी भी पिता और बड़े भ्राता से प्रेरणा लेकर कविता करने लगे और किशोरावस्था में ही अच्छी कवितायेँ लिखने लगे । अटल बिहारी वाजपेयी किशोर वय में ही एक प्रतिष्ठित कवि के रूप में स्थापित हो गए। इतनी कम उम्र में प्रभावी कविता लिखने का दम्भ उनमें नहीं आया, तब भी नहीं जब वे प्रधानमन्त्री हो गए। वे उसे दौर में लिखी हुई अपनी कविताओं को मात्र ‘तुकबंदी’ कहकर तत्कालीन वरिष्ठों को सम्मान देते रहे।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई उनकी कविता निखरती गई और एक दौर ऐसा आया जब वाजपेई जी मंच के बड़ी का बड़े कवियों के रूप में जाने जाने लगे। अटल जी बड़े-बड़े कवियों जैसे नीरज, शिवमंगल सिंह सुमन, देवराज आदि के साथ मंच पर कविता पढ़ने लगे। वे इतने प्रभावी कवि हो गए कि उन्हें मंच का युवा दीपक के रूप में देखा जाने लगा। लेकिन कविता से प्राप्त यह यश अभी शिखर की सीढ़ियां चढ़ ही रहा था कि उनकी युवावस्था की ऊर्जा ने उनको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़कर उनकी सर्जना शक्ति को और भी परिष्कृत कर दिया। संघ के दायित्वों और प्रभावी सर्जनाशक्ति के कारण कविता धीमे-धीमे पीछे छूटने लगी। वे पत्रकारिता के द्रुतगामी परिवेश से जुड़ गए।
लखनऊ से प्रकाशित ‘राष्ट्रधर्म’ के संपादकत्व का वृहद भार संभालने के परिणाम स्वरूप लेखन संयोजन की आपाधाफी के भंवर में लिखना तो होता रहा पर कविता चुपके से नेपथ्य में चली गई। कविता लिखने के लिए एकाग्रता, क्षोभ रहित समय, और उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता होती है। किंतु अखबारी जीवन में यह सब आसानी से नहीं मिलता। उन्होंने भी स्वीकारा था कि संपादकीय गुरुत्व को वहन करते हुए उनको यह तीनों ना मिल सके तो कविता का पीछे छूटा जाना स्वाभाविक था। इसके बाद उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की आपाधापी को कविता ना लिख पाने का भी दूसरा कारण माना है। राजनीति और समाचार पत्रों के संपादकत्व के भार के कारण कविता और भी दूर चली गई पर मन कविता में लग रहा।
अमूमन उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता को ही रेखांकित किया जाता रहा है किंतु वास्तव में उनकी कविताओं में स्व से लेकर समाज तक और दिग्दर्शन से लेकर दर्शन तक सभी का समावेश है। उनकी पहली कविता ‘यह ताजमहल यह ताजमहल’ अपने विषय-वास्तु की सुंदरता की बजाय उसके निर्माण में लगे अपरिमित श्रम और शोषण को रेखांकित करती है। उनकी दृष्टि वैश्विक है और इसी वैश्विक दृष्टि को रेखांकित करती है उनकी दूसरी कविता ‘हिरोशिमा की पीड़ा’। यह कविता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिक आविष्कारों से जनित विध्वंस को चुनौती देती कविता है। यह कविता अंतरराष्ट्रीय स्तर की कविता है जो एटम बम के आविष्कारों से पूछती है- “क्या उन्हें एक क्षण के लिए सही, यह/ अनुभूति हुई कि उनके हाथों जो कुछ/ हुआ, अच्छा नहीं हुआ?” इसी तरह “मन का संतोष” भी वैश्विक परिवेश में अतृप्त आकांक्षाओं को रेखांकित करती हुई कविता है। अटल जी का कविमन विश्व को विध्वंसकारी वैज्ञानिक आविष्कारों के सामने निरीह और लाचार वास्तु के रूप में देखता है।
मानववाद यानी ह्यूमैनिज्म पर उनकी कविताएं आमजन को बल देती हैं । वह मानव समाज की परिस्थितियों से भिड़ने और चुनौतियों से जीतने को प्रेरित करती हैं ।
वे लिखते हैं-
“मनुष्य की पहचान,/ उसके धन या सिंहासन से नहीं होती/ उसके मन से होती है।” यह दर्शन शास्त्र की बात है। मन यानी वृत्ति ही तो मनुष्य को सुसंस्कृत समाज की ओर ले जा सकती है और इस वृत्ति का सही या शुद्ध होना अटल जी की दृष्टि में बेहद जरूरी है इसीलिए वे कहीं-कहीं पर अपनी कविताओं में व्यक्तिगत वैभव व सुख कि बजाय सार्वजनिन सुख और दर्शन की बात करते हैं।
‘पहचान’ कविता की यह पंक्तियाँ देश, समाज, जाट, रंग, वर्ग और भेद के तमाम दायरों से परे समग्र मानव समाज को चेतनाभास कराती है- “जड़ता का नाम जीवन नहीं है/ पलायन पुरोगमन नहीं है।/ आदमी को चाहिए कि वह जूझे, परिस्थितियों से लड़े/ एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े।” इसी तरह ‘ऊंचाई’ और ‘यक्ष प्रश्न’ शीर्षक वाली दो कविताएं भी दृष्टतव्य हैं। अटल जी की कविताएं स्वर से रंजीत ना होकर संपूर्ण से संबंधित है।
अटल जी की कविताओं में राष्ट्रीयता के स्वर रेखांकित हैं। उनका राष्ट्रराग कहीं-कहीं पर दिनकर से प्रेरित लगता है और कहीं-कहीं पर शिवमंगल सिंह सुमन से। कवि अटल जी का यह राष्ट्रराग वीर रस की ओज में डूबकर उग्र होने की बजाय जरा सा शालीन है। वे भारत का परिचय ओजपूर्ण किन्तु शालीन शब्दों में करते हैं।
वे लिखते हैं-
“शत-शत आघातों को सहकर, जीवित हिंदुस्तान हमारा/ जग के मस्तक पर रोली सा शोभित हिंदुस्तान हमारा/..किंतु चीरकर तम की छाती चमका हिंदुस्तान हमारा।”
वे लिखते हैं –
“हृदय हृदय में एक आग है कंठ कंठ में एक राग है/ एक ध्येय हैं एक स्वप्न है लौटना माँ का सुख सुहाग है।” दूसरी ओर राष्ट्र की शक्ति को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं- “आंखों में वैभव के सपने, पग में तूफानों की गति हो/ राष्ट्रभक्ति का ज्वार न रुकता, आए जिस जिस की हिम्मत हो।
जब जब कवि और राजनेता के किसी भी मिश्रित व्यक्तित्व पर चर्चा होगी अटल जी बहुत याद आयेंगे। भले ही वे राजनीति में आने के कारण कविता कम लिख पाए पर जितना भी लिख पाए वह इंद्रधनुषी होने के साथ-साथ मूल्यवान भी है। उनकी कविता के इंद्रधनुषी वैविद्य में उनका काव्य सौंदर्य शैली, और औदार्य हर वर्ग को प्रभावित करता है।
कविता को राजनीति की नहीं बल्कि राजनीति को कविता की जरूरत होती है। संसद में या लाल किले से जब भी अटल जी बोलते तो एक राजनीतिज्ञ के साथ एक कवि के रूप में भी बोलते। उनका यही कवि मन और काव्यमंच की वकतृत्व शैली श्रोताओं के मन में उनकी बात को स्थापित कर देता। उन्होंने एक बार राष्ट्र को जागृत होने का संदेश देते हुए अपनी पंक्तियों की इन लाइनों को पढ़कर सबको आशान्वित कर दिया था-
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें बुझी हुई बाती सुलगाएं
आओ फिर से दिया जलाएं।
अटल जी की वक्तृत्वशैली, उनका व्यवहार, उनकी शुचिता के साथ-साथ उनके कविता के लिए भी राष्ट्र उनको याद रखेगा।
नमन