मेरी देह पर इन दिनों संक्रमित बीमारियों का खतरा बढ़ता जा रहा है
मैं हड़बड़ाहट में पुकारती हूँ मर चुके व्यक्तियों को अपनी सहायता के लिए
मेरे पुरखे मरते नहीं, पत्थर बन जाते हैं!
मृतक स्तम्भ के पत्थरों की बड़ी सी परछाई
आते -जाते गिर रही है मेरी देह पर
मैं बिलखने ही वाली होती हूँ कि कोई लोकोक्ति आकर थाम लेती है मेरी बाँह!
कोई पुराना मुहावरा आकर मुझे दिखा देता है
मेरे घर तक जाने वाली पगडंडी
कुछ मिथक कथाएं दौड़कर चली आती हैं मेरे करीब
मैं मंत्रमुग्ध हो उन्हें निहारती रहती हूँ
उनकी कहानियाँ मेरे कानों में खोए हुए पुरखों की
स्मृति ध्वनियाँ छोड़ जाती हैं!
मैं दौड़ती हूँ सरपट बिना किसी डर भय के
लाँघती हूँ सदियों पुरानी अदृश्य दीवारें
जिनके होने न होने के बीच झूलती रही है
मेरी देह की गली हुई हड्डियां!
मेरे हिस्से तिल -तिल कर न जाने कितनी ही सदियों का गर्म लहू जमा है
मुझे जन्म देने वाली माँ ने जमीन पर सुलाते हुए कहा था तुझे पालने वाली माँ होगी कोई वनकन्या
जिसके माथे पर टिकली की तरह सज रहा होगा ‘हसदेव’ सा कोई घना जंगल
माँ की कही गई बात मुझे ढांढस बंधाती है!
मैं पहाड़ों को उम्मीद से देखती हूँ
नदियाँ जानती हैं, हरी टिकली वाली मेरी माँ का पता
और मैं जानती हूँ उन नदियों को
जिनके हिस्से कितनी ही परम्पराओं का दुःख है!
नदी का पानी बहकर भी मुझसे दूर नहीं जा पाता
नदी अपना दुःख लिए ठहर जाती है
किसी एक घाट के किनारे
मैं अपना दुःख नदी से कहती हूँ!
मैं सोचती हूँ,
नदी अपना दुःख किससे कहती होगी!