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कपड़े पहनने का अब तक शऊर नहीं सीखा

पूनम वासम

by satat chhattisgarh
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Poem

बस में चढ़ते ही कंडक्टर ने उसकी कमर पर हाथ रख
उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा चल पीछे जा
वह मुर्गियों से भरी हुई टोकरी को उठाये जैसे तैसे अपने लिए रास्ता बनाती

महुआ दारू से भरी प्लास्टिक की बोतल को जोर से दबाता हुआ वह खिसियाते हुये बोला साली इतना दारू बेचकर तो रोज बहुत पैसा कमा लेती होगी तू
चल जा उधर पीछे की सीट छोड़कर नीचे बैठ जा

दूध पिलाते बच्चे को खुली रह गई उसकी एक छाती पर नजर गड़ाते हुए वह बोला
कपड़े पहनने का अब तक शऊर नहीं सीखा
चली है बस में बैठकर सफर करने
फुटू से भरा उसका झोला छीनकर मनमर्जी का फुटू
निकाल दस का नोट पकड़ाता हुआ वह चिल्लाया
पकड़ नहीं तो बस से नीचे उतार दूंगा

अपनी-अपनी सीट पर बड़े आराम से बैठे हुए लोग
जिन्हें मुर्गी, महुआ दारू की गंध से उबकाई आती है
वे लोग बीच बीच में कानों से अपना ईयरफोन निकाल
उन स्त्रियों को तमीज सिखाने में लग जाते
कोई मुँह बिचकाते हुए कहता दुनिया कितनी तेजी से
बदल रही है जाने ये मुरिया मारिया कब बदलेंगे

बस का पूरा किराया भरने के बाद भी
जिन स्त्रियों के हिस्से लोहा-लक्कड़ के बस में
एक सीट भर की जगह नहीं उन स्त्रियों के लिए यह दुनिया उस बस जैसी है जहाँ वे कंडक्टर के सामने आज भी ससम्मान एक सीट के लिए संघर्षरत खड़ी हैं

यह अपराध है, मजाक है या कोई संगीन जुर्म या फिर पूर्वाग्रह या कोई भूल-चूक

अब आप इन्हें कविता, कहानी या उपन्यास की तरह
मत पढ़ने लग जाइए
अगर पढ़ना ही है तो जीवन की तरह पढ़िए

ये स्त्रियां आपके स्त्री विमर्श की न जाने
कितनी कलई खोलती हुई पकड़ी जायेंगी
और आप उफ्फ तक नहीं लिख पाएंगे।

 

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