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जीवन के नुक्कड़ में, नुक्कड़ ही जीवन है

कनक तिवारी

by satat chhattisgarh
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In the nooks and corners of life, the nooks and crannies are life

भावनाओं और जिजीविषा को उद्यमी बनाने का नायाब अनुभव

मनुष्य का जीवन उसके ही लिए एक पहेली, अनसुलझी भावनाओं और जिजीविषा को उद्यमी बनाने का नायाब अनुभव भी होता है। दैहिक दिखाऊ रूप में तो नागरिक जीवन दुनिया भर में एक तरह का लगता है। खानपान, रहनसहन, पोषाक, पढ़ाई, लिखाई, नौकरी चाकरी और बस यूं ही एक औसत और रूटीन जिंदगी को ढोते रहने का जतन। लेकिन यह मनुष्य है बल्कि उसके व्यापक अस्तित्व के अंदर मौलिक सोचने की कोशिश करता जेहन जो इस तरह से जीवन का श्रृंगार करता है। ये नहीं होते तो जिंदगी एक दूभर अहसास के अलावा और क्या होती? ऐसी सभी कोशिशों को अंततः को ही तो संस्कृति कहा गया। उसमें केवल नाच गाना, चित्रकारी, कलाकारी, नाटक हास परिहास और तरह तरह के प्रदर्शनीय करतब भर शामिल नहीं हैं। अंदर कोई नदी सी बहती है। जो मनुष्य होने के अहसास को नहलाती सराबोर करती है। ये कोशिशें एक ही तरह की नहीं होतीं और न जोखिम उठाने में संकोच करती हैं।
In the nooks and corners of life, the nooks and crannies are life
इक्कीसवीं सदी का भारतीय नागरिक जीवन राजनीति के दबाव और हस्तक्षेप और उसके हमलावर होने से उन स्पन्दनों से महरूम हो गया है। जो उसके साथ पिछली ही सदी में आजादी की लड़ाई लड़ने के दिनों में भी जीवंत होकर मुखर रही हैं। सामाजिक जीवन में सड़ांध तक घोलने के किरदार सियासी शख्सियत के बडे़ पदों पर हैं। वे समझते हैं कि वे ही नागरिक जीवन के नियामक हैं। क्यों यह कतई सही नहीं है। हुए होंगे तीसमारखां शहंशाह जिनकी जरूरत हुकूमत के लिए तो होती है। लेकिन तानसेन, बैजूबावरा, राजा रवि वर्मा, अलाउद्दीन खां, दिलीप कुमार, लक्ष्मण मस्तूरिहा, देवदास, कुन्दनलाल सहगल, चंडीदास, मीराबाई जैसे लाखों नाम हैं जिन्होंने हिन्दुस्तान में इंसानियत और हिन्दुस्तानियत को इस कदर मोक्षमय बनाया कि तभी कहा गया ‘जननी जन्न्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।‘
पौराणिक बातें छोड़ें। इक्कीसवीं सदी के आज 26 दिसंबर के दिन मैं कल बड़े दिन की यादों में खो रहा हूं। कल हमारे रायपुर में एक ‘नुक्कड़‘ में प्रभु यीशु का जन्मदिन और कई कला अनुभवों के सामूहिक क्षण एक दूसरे से आंख मिचौली और गलबहियां करते संस्कृति को मनुष्य रूप में रूपांतरित कर रहे थे। कथा एक नायाब प्रयोग की है। मैं उसे संस्था नहीं कहूंगा। प्रियंक पटेल और उनकी पत्नी नेहा ने मन के अंदर हलचल मचा देने का एक उद्यम रचा है। मजा यह है परंपराओं से निकलती उनकी अनुभूतियां समकालीनता की सहकारिता में इस तरह सराबोर होती रहती हैं कि ज्ञानेन्द्रियों को जीवंत करने का वह एक चुनौतीपूर्ण प्रयोगशील शगल है। तरह तरह के चित्र, तरह तरह की कलाकृतियां, उन कलाकृतियों में नायाब तरह के प्रयोग, करुणा क्षण को अभिव्यक्त होने की पेश की जा रही चुनौतियां, केरल से लेकर के उत्तर भारत के कलाकारों के जीवंत प्रयोग, नई पीढ़ी की आंखों में उमड़ रहे सपनों के कोलाज, उन्हें संरक्षित रखने के जतन, नई भाषा, नए तेवर, निरंतरता को नए फैशन में ढालती अभिव्यक्तियां, युवजनों का भारी जमघट सबकी आंखों में संसार को नए ढंग से रचने की कशिश, बच्चों की किलकारियां, खानपान की दुर्लभ सुगंध, इन सबका ब्यौरा देना संभव नहीं है।
इस कमरे में बैठकी करिए। इन छोटे छोटे कक्षों में अलग अलग समूह में बैठकर नायाब खाद्य पदार्थों को चबुलाते हुए जीवन रस ढूंढ़िये, युवजन कहीं पीछे बज रही संगीत की स्वरलहरियों में अपनी अनुभूतियां खोज रहे हैं। कुल मिलाकर मनुष्य मन का कोलाहल अपनी रसमयता को जज़्ब कर रहा है। शब्द उसे कैसे समझा पाएं। जो हो रहा है। वह रायपुर की और छत्तीसगढ़ में एक नई प्रयोगशील उद्यमी जीवन की उल्लसित होती धड़कन है।
कमाल है प्रियंक और नेहा! बौद्धिक, सांस्कृतिक जोखिम उठाते लेकिन जिजीविषा को संस्कृतिमयता में ढालते तुम्हारा युवा उद्दाम हौसला समाज की एक अलक्षित परिघटना नहीं है। मैं थोड़ी देर कल तुम्हारे साथ नई जगह पर नई शुरुआत में रहा था। पहले भी तो गया ही था। आगे तो आना ही आना है। जो हो रहा है। वह केवल मौखिक बधाई के लायक नहीं है। वह सहकार, सहभागिता और शामिल होने के लायक है। यहां औपचारिकता का रास्ता बाहर की ओर जाता है। परिवारमयता का व्यापक बोध जगाने वह अन्दर आने पर तिरता रहता है। चलो आज इतनी बधाई दे दूं। फिर मिलूंगा तो गलबहियां भी करूंगा। फोटो में अकलतरा के अश्विन चंदेल जो प्रियंक के मित्र हैं प्रियंक पटेल मैं और मेरा बेटा तेजस जो मुझसे ज्यादा संस्कृति को समझता है।

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