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महाकुम्भ : आस्था से प्रौद्यगिकी तक

डॉ . अजय तिवारी 

by satat chhattisgarh
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Maha Kumbh

Maha Kumbh : बचपन में इंतजार रहता था कि मकर संक्रांति का स्नान हो और माघमेला घूमने का अवसर मिले. इलाहबाद में रहने का यह एक प्रधान सुख था. गाँव से स्नान करने और मेला देखने वाले आगंतुकों का जमघट घर में लग जाता था. बाहर उत्सव की भीड़-भाड़, घर में मेहमानों की भीड़-भाड़. महीने भर का समय इसी तरह बीत जाता. बाहर सबसे अधिक आनंद मेले की सैर में आता. इतनी तरह के इन्सान, इतनी तरह की दुकानें, इतने तरह के रंगारंग कार्यक्रम, बस पूछिए ही मत. माघमेला तो हर साल पौष पूर्णिमा के स्नान से महाशिवरात्रि के स्नान तक, डेढ़ महीने चलता. कुम्भ तीन साल में आता, अर्धकुम्भ छः साल में और महाकुम्भ बारह साल में. इस बार का महाकुम्भ चौबीस सालों में आनेवाला पूर्ण कुम्भ है. उसका महत्व यों भी अधिक है. उसपर केंद्र और राज्य सरकारों ने अतिरिक्त दिलचस्पी लेकर उसे बेहद विशेष बना दिया है. प्रधानमंत्री ने खुद उसके शुभारम्भ का कार्य करके उसे धर्मे और राजनीति का संगम बना दिया है. ऐतिहासिक नगर खुद इलाहबाद अब पौराणिक नगर प्रयागराज हो चुका है. दूसरी ओर इस बार प्रयागराज का महाकुम्भ धार्मिकता के साथ वैज्ञानिकता के सामंजस्य का उदहारण होगा. उसी के साथ आस्था और व्यवसायिकता का संगम भी होगा.

     आस्था हमेशा बुरी नहीं होती. जिस मकर संक्रांति को माघमेला शुरू होता है, उसका आधार ग्रहों और नक्षत्रों की गणना है और उस विद्या का विकास ऋग्वेद से भी हजारों साल पहले, कृषि के जन्म से जुड़ा है. यह भी उल्लेखनीय है कि कृषि के इस पर्व में भारत की बौद्धिक-सांस्कृतिक सम्बद्धता दिखाई देती है. उत्तर भारत में मकर संक्रांति खिचड़ी के रूप में मनाई जाती है, दक्षिण भारत में ओणम के रूप में और पूर्वोत्तर में वही बिहू है जबकि पंजाब (पश्चिम) में बैसाखी. नक्षत्र गणना पर ज्योतिष भी आधारित है. माघ में संगम स्नान का महत्व इस गणना से निर्धारित किया गया है लेकिन वह आस्था के रूप में बद्धमूल हो गया है. सामान्य माघ स्नान से कहीं अधिक महत्व कुम्भ का, उसमें भी महाकुम्भ का है. इसलिए कृषि संस्कृति, नक्षत्र गणना और आस्था का समन्वय कुम्भ की अवधारणा में ही विद्यमान है. २०२५ के कुम्भ की भव्यता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक तो यह विश्व का सबसे विशाल मेला होता है जिसमें करोड़ों लोग शामिल होते है; दूसरे, इसमें अब अनेक देशों के पर्यटक आते हैं; तीसरे, इस बार सरकार ने कुम्भ के लिए २६०० करोड़ रुपये का बजट निश्चित किया है और वह ४००० हेक्टेयर में फैला है. इतने बड़े क्षेत्र में इतने आर्थिक संसाधन से किया जा रहा कुम्भ भव्यता में अतुलनीय होगा, इसमें संदेह नहीं.

     एक ओर साधु-संन्यासी, मठ-मंदिर-अखाड़ों के प्रतिनिधि, धर्म को राजनीति से जोड़ने वाले संगठन होंगे, दूसरी ओर लाखों कल्पवासी, देश भर के तीर्थयात्री, विदेशी पर्यटक होंगे, तीसरी ओर मेले में अपनी दुकान लगाने वाले छोटे-बड़े व्यापारी, प्रदर्शनी और विक्रय केंद्र खोलने वाली सरकारी-अर्धसरकारी संस्थाएँ होंगी, चौथी ओर रामलीला-रासलीला-नौटंकी आदि के माध्यम से सामान्य तीर्थयात्रियों का मनोरंजन करनेवाली मंडलियाँ होंगी. विविधता नानारूपों में साकार होगी. लगभग ४५ करोड़ लोगों की हिस्सेदारी का अनुमान है. इतनी भीड़ अनियंत्रित न भी हो तो थोड़ी-बहुत अव्यवस्था की, लोगों के खोने की या छोटी-मोटी दुर्घटना की आशंका रहती है. इसलिए प्रयागराज में नई विकसित कुम्भ नगरी में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारीयों के आलावा निगरानी, सहायता और व्यवस्था के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) का पहली बार व्यापक उपयोग किया जा रहा है. यह खोये हुओं को परिजनों से मिलाने में, किसी स्थल पर अधिक भीड़ की निगरानी करने में और असामाजिक तत्वों को नियंत्रित करने में सहायता करेगी. ज़ाहिर है, दुर्घटना की सम्भावना न्यूनतम होगी. वैसे भी, १९५४ के कुम्भ में नागाओं के स्नान के बाद कुछ भगदड़ के कारण एक बड़ी दुर्घटना के अलावा कुम्भ में इतनी भीड़ के बावजूद कोई बड़ी दुर्घटना दर्ज नहीं है. इस बार संसाधनों की बहुलता और प्रौद्योगिकी की आधुनिकता के सहयोग से व्यवस्था के सुचारू रहने का भरोसा ज्यादा है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से सम्बद्ध कैमरे, फेसबुक और एक्स का उपयोग—इस प्रकार डिजिटल माध्यम का इतने बड़े स्तर पर पहली बार उपयोग होने जा रहा है.

ऐसा नहीं कि नई प्रौद्योगिकी पहली बार माघमेले में प्रदर्शित होगी. मुझे याद है कि १९६८ या ’६९ में टेलीविजन का प्रदर्शन किया गया था. दिन में रासलीला का मंचन और रात को फिल्मों का प्रदर्शन १९७० तक हमेशा होता था. इस महीने-डेढ़ महीने के लिए एक सामानांतर संसार संगम तट पर बस जाता है. नगर के पंडे, घाटिए और मल्लाह, देश भर के साधु और अखाड़े, कल्पवासी, तीर्थयात्री, पर्यटक, नाट्य मंडलियाँ, तरह-तरह के दुकानदार, मानों जितने किस्म के मनुष्य हैं, उनके नमूने कुम्भ में एकत्र होते हैं. इस महा आयोजन को केवल धार्मिक दृष्टि से देखने की जगह इस तरह भी देखना संभव है कि जब लोगों के पास आवागमन और मनोरंजन के साधन सीमित थे तब देश की बिखरी हुई ग्रामीण आबादी के लिए यह पर्व पुनर्जीवन का माध्यम था. आगंतुकों की साधारण भाषा के साथ पंडों-मल्लाहों की कूटभाषा का मिलान करने पर अलग ही दृश्य उभरता है. यजमान अगर संपन्न है तो पंडे संकेत कर देते हैं—‘मानजी चौकड़ हैं’; सामान्य हैं तो ‘मानजी धानी हैं’;  सौ रुपये लेने हैं तो ‘सुन्न’, तीन सौ लेने हैं तो ‘सिंघाड़ा’, ५०० लेने हैं तो ‘हाथू सुन्न पलिगा’! मेले के खास आकर्षण सबके लिए अलग होते थे. गाँव वालों के लिए चमड़े की चीज़ें, मिट्टी के बर्तन, बिसातखाने के सामान (सिंदूर, टिकुली, बिछिया, रंग-बिरंगे धागे, इत्यादि); साक्षरों के लिए धार्मिक पुस्तकें, फ़िल्मी गानों की पुस्तिकाएँ, बैताल पचीसी, अलिफ़ लैला, राधेश्याम कथावाचक की रामायण, गड़बड़ रामायण, बीरबल के चुटकुले इत्यादि. अब शायद गीताप्रेस तो आता है लेकिन देहाती पुस्तक भंडार नहीं रह गया है. उसकी पेरोडी वाली हास्यरस की सामग्री अब धर्मोंमादियों को आक्रामक बना सकती है. गड़बड़ रामायण इसका उदहारण है जिसे कोई धर्मांध व्यक्ति सहन नहीं करेगा. हालाँकि यह रामचरितमानस के कुछ हिस्सों की हास्यरस में लिखी गयी पेरोडी है.

     यह बात उल्लेखनीय है कि माघमेले का चरित्र क्रमशः बदलता गया है. आज भी उसमें कुछ पारम्परिकता का स्वरुप बचा है जो उसकी सजीवता का स्रोत है, लेकिन बहुत कुछ नयी आवश्यकताओं से भी विकसित हुआ है. अगर गौर कीजियेगा तो निर्धन और ग्रामीण तीर्थयात्रियों के लिए या नियमित कल्पवासियों के लिए टेंट होंगे, देश के संपन्न लोगों और विदेशी पर्यटकों के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं से भरपूर—‘स्विस काटेज’ होंगे. मतलब यह कि निर्धन और धनी, पर्यटक और तीर्थयात्री, हर तरह के आगंतुक के लिए पर्याप्त व्यवस्था उपलब्ध है. लम्बी तैयारी के दौरान कुछ तो उत्तर प्रदेश सरकार ने बंदोबस्त किये हैं, जैसे नगर के दर्शनीय मंदिरों को भव्यता प्रदान करना (दशाश्वमेध, नागवासुकी और मनकामेश्वर मंदिरों का सौन्दर्यीकरण—हालाँकि इस फेर में उनकी सहज भव्यता नष्ट हो गयी है और अतिशय अलंकरण ने कुरुचि का रूप ले लिया है), अक्षयवट कोरिडोर, हनुमान मंदिर कोरिडोर और पहली बार गंगा के दोनों तटों पर पक्के घाट. इस तरह के घाट बनारस की पहचान थे, इलाहबाद में यह उनका प्रथम आगमन है. कुछ नगरवासियों ने भी बंदोबस्त किये हैं. जैसे दारागंज और अल्लापुर आदि कुम्भ्क्षेत्र के निकटवर्ती  मुहल्लों में पहली बार होटल और लाज खुल गए हैं ताकि मध्यवर्गीय कुम्भ दर्शक शिविर की असुविधा के बजाय आरामदेह बिस्तर और हीटर में रह सकें. मतलब यह कि केवल सरकार ही नहीं, स्थानीय लोग भी कुम्भ को अवसर के रूप में ले रहे हैं. बहरहाल, मस्ती, मनोरंजन, आस्था, व्यापार, मानवीय समागम का यह भव्य आयोजन सबके लिए आकर्षण का विषय है.

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