वह नहीं जानती नदी के उस पार पगडंडी नहीं
बल्कि कोई जादुई दुनिया है
इस उम्र तक आते-आते वह सिर्फ साइकिल की सवारी का ही सुख जान पाई
उसके शरीर के अधिकांश हिस्से में खुजली है,
जिसे वह तालाब की मिट्टी से रगड़-रगड़ कर धोती है
‘डर्मेटोलॉजिस्ट’ नाम उसके बाप-दादाओं ने भी कभी नहीं सुना होगा
बुखार आने पर ‘पैरासिटामोल’ की गोलियाँ काम आती हैं यह जानने में
अभी उसे पूरी उम्र खपानी होगी
उसके नाम पर मैं कविताएँ लिखती हूँ
उसकी तस्वीर चुपके से उतारकर उसकी ‘अर्धनग्नता’ की कीमत लगाती हूँ
बाजार को यह बात पसंद है
एक सभ्य समाज को यह पसंद है
एक व्यापारी को यह पसंद है
एक कलाकार को यह पसंद है
एक सुंदर दीवार पर उसकी तस्वीरें टंगती हैं
एक पूरा ड्राइंग हॉल जंगल में बदल जाता है
यह बात समझने में शायद उसे एक जन्म कम पड़े
कि उसकी देह दुनिया के लिए एक सार्वजनिक मंच है
उस गाँव में कुल जमा मोटी संख्या है मनुष्यों की
स्त्री, पुरुष, बच्चे सब के सब
भूख के लिए भात का
रात के लिए आग का
पीने के लिए सल्फी का
जीने के लिए गीतों का
किरिया के लिए तलूरमुत्ते का
मरने के लिए मृतक स्तंभ का
कहीं खो जाने के लिए नृत्य का
उजाले के लिए उगते सूर्य का
साँस के लिए गाँव की हवा का पक्का भरोसा करते हैं
सबके सब एक ही मिट्टी के बने हुए पुतले हैं
जिनका एक साथ गल कर किसी बेमौसम बारिश की बाढ़ में बह जाना तय है
ऐसा नहीं कि वह कुछ नहीं जानती, जानती है न
जंगल, नदी, पहाड़ की आत्मीयता
वह पहचानती है जंगल में घुसकर
शिकार करते शिकारियों की नीयत
कई दफा फँस चुकी है आदमखोर इंसानों के
बिछाए जाल में
बार-बार लुटती रही उसकी देह
वह देह के बारे में जानती है, परंतु देश के बारे में नहीं
उसने किताबें नहीं पढ़ी,
जीवन का पाठ भी बहुत थोड़ा पढ़ा है
वह देश की परिभाषा नहीं गढ़ सकती उसके लिए
जैसे सुकमा, कोंटा, बीजापुर वैसे ही
किसी गाँव का नाम है ‘देश’
उससे पूछूँ भी तो क्या पूछूँ?
उसका नाम
उसका काम
उसकी जात
उसका गोत्र
उसका गाँव
यह कितने साधारण प्रश्न हैं जिनका उत्तर देते हुए भी
उसकी जुबान कितनी दफा लड़खड़ा रही थी
पूछना तो चाहती थी
सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में क्यों हैं
मंगल ग्रह पृथ्वी से कितनी दूर है
मैरी कॉम बॉक्सर कैसे बनीं
इन दिनों उर्फी जावेद चर्चा में क्यों है
अरुंधति रॉय क्या करती हैं
पर मैं इतना ही पूछ पाई
तुम्हारे ‘जिला मुख्यालय’ का नाम क्या है?
इस प्रश्न पर वह देर तक मुझे घूरती रही
दूर कहीं फूल मुरझा रहे थे, तितलियाँ मर रही थीं,
और हम दोनों एक-दूसरे की पनीली आँखों में धीरे-धीरे
डूब रही थीं।