Premchand’s story : जुम्मन शेख़ और अलगू चौधरी में बड़ा याराना था। साझे में खेती होती। लेन-देन में भी कुछ साझा था। एक को दूसरे पर कामिल एतिमाद था। जुम्मन जब हज करने गए थे तो अपना घर अलगू को सौंप गए थे और अलगू जब कभी बाहर जाते तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते। वो न हम-निवाला थे न हम-मशरब। सिर्फ़ हम-ख़याल थे और यही दोस्ती की अस्ल बुनियाद है।
इस दोस्ती का आग़ाज़ उसी ज़माने में हुआ जब दोनों लड़के जुम्मन के पिदर-ए-बुज़ुर्गवार शेख़ जुमेराती के रू-ब-रू ज़ानू-ए-अदब तह करते थे। अलगू ने उस्ताद की बहुत ख़िदमत की ख़ूब रकाबियाँ माँझीं। ख़ूब प्याले धोए, उनका हुक़्क़ा दम न लेने पाता था। इन ख़िदमतों में शागिर्दाना अक़ीदत के सिवा और कोई भी ख़याल मुज़िर न था, जिसे अलगू ख़ूब जानता था। उनके बाप पुरानी वज़ा के आदमी थे। तालीम के मुक़ाबले में उन्हें उस्ताद की ख़िदमत पर ज़्यादा भरोसा था।
वो कहा करते थे उस्ताद की दुआ चाहिए जो कुछ होता है फ़ैज़ से होता है। और अगर अलगू पर उस्ताद के फ़ैज़ या दुआओं का असर न हुआ तो उसे तस्कीन थी कि तहसील-ए-इल्म का कोई दक़ीक़ा उसने फ़ुरुगुज़ाश्त नहीं किया। इल्म उसकी तक़दीर ही में न था। शेख़ जुमराती ख़ुद दुआ और फ़ैज़ के मुक़ाबले में ताज़ियाने के ज़्यादा क़ाइल थे और जुम्मन पर इसका बे-दरेग़ इस्तेमाल करते थे, उसी का ये फ़ैज़ था कि आज जुम्मन के क़ुर्ब-ओ-ज्वार के मवाज़िआत में पुरशिश होती थी। बैअनामा या रहन-नामा के मुसव्विदात पर तहसील का अराइज़-नवीस भी क़लम नहीं उठा सकता था।
हल्क़े का पोस्टमैन कांस्टेबल और तहसील का मज़कूरी ये सब उनके दस्त-ए-करम के मोहताज थे। इसलिए अगर अलगू को उनकी सर्वत ने मुम्ताज़ बना दिया था तो शेख़ जुम्मन भी इल्म की ला ज़वाल दौलत के बाइस इज़्ज़त की निगाहों से देखे जाते थे।
शेख़ जुम्मन की एक बूढ़ी बेवा ख़ाला थीं। उनके पास कुछ थोड़ी सी मिल्कियत थी। मगर ग़रीब का वारिस कोई न था, जुम्मन ने वादा-ओ-अह्द के सब्ज़-बाग़ दिखा कर ख़ाला अम्माँ से वो मिल्कियत अपने नाम करा ली थी, जब तक हिबानामा पर रजिस्ट्री न हुई थी ख़ाला जान की ख़ूब ख़ातिर दारियाँ होती थी। ख़ूब मीठे लुक़्मे-चटपटे सालन खिलाए जाते थे। मगर पगड़ी की मोहर होते ही उनकी ख़ातिर-दारियों पर भी मोहर हो गई, वो वादे विसाल के दम्मूरे साबित हुए। जुम्मन की अहलिया बी-फ़हीमन ने रोटियों के साथ चीज़ भी बदल दीं और रफ़्ता रफ़्ता सालन की मिक़दार रोटियों से कम कर दी। बुढ़िया वक़्त के बोरिए बटोरेगी क्या, दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया है, एक दिन दाल बग़ैर रोटी नहीं उतरती। जितना रुपया उसके पेट में गया, अगर होता तो अब तक कई गाँव मोल ले लेते, कुछ दिनों तक ख़ाला जान ने और देखा मगर जब बर्दाश्त न हुई तो जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन सुलह पसंद आदमी था। अब इस मुआमले में मुदाख़िलत करना मुनासिब न समझा। कुछ दिन तो रो-धो कर काम चला। आख़िर एक रोज़ ख़ाला जान ने जुम्मन से कहा,
“बेटा, तुम्हारे साथ मेरा निबाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो मैं अपना अलग पका लूँगी।”
जुम्मन ने बे-एतिनाई से जवाब दिया, “रुपया क्या यहाँ फलता है?”
ख़ाला जान ने बिगड़ कर कहा, “तो मुझे कुछ नान नमक चाहिए या नहीं?”
जुम्मन ने मज़्लूमाना अंदाज़ से जवाब दिया, “चाहिए क्यों नहीं, मेरा ख़ून चूस लो! कोई ये थोड़े ही समझता था कि तुम ख़्वाजा ख़िज्ऱ की हयात लेकर आई हो।”
ख़ाला जान अपने मरने की बात नहीं सुन सकती थीं, जामा बाहर हो कर पंचायत की धमकी दी। जुम्मन हँसे, वो फ़ातिहाना हंसी जो शिकारी के लबों पर हिरन को जाल की तरफ़ जाते हुए देख कर नज़र आती है। कहा, “हाँ, ज़रूर पंचायत करो फ़ैसला हो जाए, मुझे भी रात-दिन का वबाल पसंद नहीं।”
पंचायत की सदा किस के हक़ में उट्ठेगी उसके मुताल्लिक़ शेख़ जुम्मन को अंदेशा नहीं था। क़ुर्ब-ओ-जवार, हाँ ऐसा कौन था जो उनका शर्मिंदा-ए-मिन्नत न हो? कौन था जो उनकी दुश्मनी को हक़ीर समझे? किस में इतनी जुर्अत थी जो उनके सामने खड़ा हो सके। आसमान के फ़रिश्ते तो पंचायत करने आएँगे नहीं, मरीज़ ने आप ही दवा तलब की।
इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी ख़ाला लकड़ी लिए आस-पास के गाँव के चक्कर लगाती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गई थी। एक क़दम चलना मुश्किल था मगर बात आ पड़ी थी, उसका तस्फ़िया ज़रूरी था। शेख़ जुम्मन को अपनी ताक़त, रसूख़ और मंतिक़ पर कामिल एतिमाद था। वो किसी के सामने फ़र्याद करने नहीं गए।
बूढ़ी ख़ाला ने अपनी दानिस्त में तो गिर्या-ओ-ज़ारी करने में कोई कसर न उठा रखी। मगर ख़ूबी-ए-तक़दीर कोई इस तरफ़ माइल न हुआ। किसी ने तो यूँ ही हाँ, हूँ कर के टाल दिया, किसी ने ज़ख़्म पर नमक छिड़क दिया, ज़रा इस हवस को देखो क़ब्र में पैर लटकाए हुए हैं। आज मरें कल दूसरा दिन हुआ, मगर सब्र नहीं होता। पूछो अब तुम्हें घर-बार, जगह-ज़मीन से क्या सरोकार। एक लुक़मा खाओ ठंडा पानी पियो और मालिक को याद करो। सबसे बड़ी तादाद सितम-ज़रीफ़ों की थी। ख़मीदा कमर, पोपला मुँह, सन के से बाल और सक़्ल-ए-समाअत जब इतने तफ़रीह के सामान मौजूद हों तो हंसी का आना क़ुदरती अम्र है। ग़रज़ ऐसे दर्द-रस, इन्साफ़-परवर आदमियों की तादाद बहुत कम थी। जिन्होंने ख़ाला जान की फ़र्याद को ग़ौर से सुना हो, और उसकी तशफ़्फ़ी की हो, चारों तरफ़ से घूम घाम कर बुढ़िया अलगू चौधरी के पास आई, लाठी पटक दी और दम लेकर कहा,
“बेटा तुम भी छन भर को मेरी पंचायत में चले आना।”
अलगू बे-रुख़ी से बोले,
“मुझे बुलाकर क्या करोगी। कई गाँव के आदमी तो आएँगे ही।”
ख़ाला ने हाँप कर कहा, “अपनी फ़र्याद तो सब के कान में डाल आई हूँ। आने न आने का हाल अल्लाह जाने? हमारे सय्यद सालार गुहार सुनकर पेड़ से उठ आए थे। क्या मेरा रोना कोई न सुनेगा।”
अलगू ने जवाब दिया, “यूँ आने को मैं आ जाऊँगा, मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा।”
ख़ाला ने हैरत से पूछा, “क्यों बेटा?”
अलगू ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा, “अब इसका क्या जवाब? अपनी-अपनी तबीयत, जुम्मन मेरे पुराने दोस्त हैं। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।”
ख़ाला ने ताक कर निशाना मारा, “बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?”
हमारे सोए ईमान का सारा जत्था चोरी से लुट जाए। उसे ख़बर नहीं होती। मगर खुली हुई ललकार सुन कर वो चौंक पड़ता है और होशियार हो जाता है। अलगू चौधरी इस सवाल का जवाब न दे सके क्या वो ‘नहीं’ कहने की जुर्अत कर सकते थे?
शाम को एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। टाट बिछा हुआ था। हुक़्क़े का भी इंतिज़ाम था, ये सब शेख़ जुम्मन की मेहमान-नवाज़ी थी। वो ख़ुद अलगू चौधरी के साथ ज़रा दूर बैठे हुक़्क़ा पी रहे थे। जब कोई आता था एक दबी हुई सलाम अलैक से उसका ख़ैर-मक़्दम करते थे। मगर ताज्जुब था कि बा-असर आदमियों में सिर्फ़ वही लोग नज़र आते, जिन्हें उनकी रज़ा जोई की कोई पर्वा नहीं हो सकती थी। कितने मज्लिस को दावत-ए-अहबाब समझ कर झुण्ड के झुण्ड जमा हो गए थे।
जब पंचायत पूरी बैठ गई तो बूढ़ी बी ने हाज़िरीन को मुख़ातिब कर के कहा,
“पंचों आज तीन साल हुए मैंने अपनी सब जायदाद अपने भाँजे जुम्मन के नाम लिख दी थी, उसे आप लोग जानते होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हीन-ए-हयात रोटी कपड़ा देने का वादा किया था। साल छः महीने तो मैं ने उनके साथ किसी तरह रो-धो कर काटे मगर अब मुझ से रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता, मुझे पेट की रोटियाँ तक नहीं मिलतीं। बेकस बेवा हूँ। थाना-कचहरी कर नहीं सकती सिवाए तुम लोगों के और किस से अपना दुख-दर्द रोऊँ। तुम लोग जो राह निकाल दो उस राह पर चलूँ, अगर मेरी बुराई देखो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो, जुम्मन की बुराई देखो तो उसे समझाओ। क्यों एक बेकस की आह लेता है।”
राम धन मिस्र बोले, (उनके कई असामियों को जुम्मन ने तोड़ लिया था।) “जुम्मन मियाँ पंच किसे बनाते हो अभी से तय कर लो।”
जुम्मन ने हाज़िरीन पर एक उड़ती हुई निगाह डाली। अपने तईं मुख़ालिफ़ों के नर्ग़े में पाया। दिलेराना अंदाज़ से कहा, “ख़ाला जान जिसे चाहें पंच बनाएँ मुझे उज़्र नहीं है।”
ख़ाला ने चिल्ला कर कहा, “अरे अल्लाह के बंदे, तू पंचों के नाम क्यों नहीं बता देता?”
जुम्मन ने बुढ़िया को ग़ज़बनाक निगाहों से देख कर कहा, “अब इस वक़्त मेरी ज़बान न खुलवाओ, जिसे चाहो पंच बना दो।”
ख़ाला ने जुम्मन के एतिराज़ को ताड़ लिया, बोलीं, “बेटा, ख़ुदा से डर। मेरे लिए कोई अपना ईमान न बेचेगा। इतने भले आदमियों में क्या सब तेरे दुश्मन हैं और सबको जाने दो। अलगू चौधरी को तो मानेगा?”
जुम्मन फ़र्त-ए-मसर्रत से बाग़-बाग़ हो गए। मगर ज़ब्त कर के बोले, “अलगू चौधरी ही सही, मेरे लिए जैसे राम धन मिस्र, वैसे अलगू चौधरी कोई मेरा दुश्मन नहीं है।”
अलगू बग़लें झाँकने लगे। इस झमेले में नहीं फँसना चाहते थे। मोअतरिज़ाना अंदाज़ से कहा, “बूढ़ी माँ तुम जानती हो कि मेरी और जुम्मन की गाढ़ी दोस्ती है।”
ख़ाला ने जवाब दिया, “बेटा दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। पंच के मुँह से जो बात निकलती है वो अल्लाह की तरफ़ से निकलती है।”
अलगू को कोई चारा न रहा… सरपंच बने। राम धन मिस्र दिल में बुढ़िया को कोसने लगे।
अलगू चौधरी ने फ़रमाया, “शेख़ जुम्मन, हम और तुम पुराने दोस्त हैं। जब ज़रूरत पड़ी है, तुमने मेरी मदद की है और हम से भी जो कुछ बन पड़ा है, तुम्हारी ख़िदमत करते आए हैं। मगर इस वक़्त न तुम हमारे दोस्त हो, न हम तुम्हारे दोस्त। ये इन्साफ़ और ईमान का मुआमला है। ख़ाला जान ने पंचों से अपना हाल कह सुनाया। तुमको भी जो कुछ कहना हो कहो।”
जुम्मन एक शान-ए-फ़ज़ीलत से उठ खड़े हुए और बोले, “पंचों मैं ख़ाला जान को अपनी माँ की जगह समझता हूँ और उनकी ख़िदमत में कोई कसर नहीं रखता। हाँ, औरतों में ज़रा अन-बन रहती है। इसमें मैं मजबूर हूँ। औरतों की तो आदत ही है। मगर माहवार रुपया देना मेरे क़ाबू से बाहर है। खेतों की जो हालत है वो किसी से छिपी नहीं। आगे पंचों का हुक्म सर और माथे पर है।”
अलगू को आए दिन अदालत से वास्ता रहता था। क़ानूनी आदमी थे। जुम्मन से जिरह करने लगे। एक-एक सवाल जुम्मन के दिल पर हथौड़े की ज़र्ब की तरह लगता था। राम धन मिस्र और उनके रफ़ीक़ सर हिला-हिला कर उन सवालों की दाद देते थे। जुम्मन हैरत में थे कि अलगू को क्या हो गया है। अभी तो ये मेरे साथ बैठा कैसे मज़े मज़े की बातें कर रहा था। इतनी देर में ऐसी कायापलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर आमादा है। अच्छी दोस्ती निभाई। इससे अच्छे तो राम धन ही थे। वो ये तो न जानते कि कौन-कौन से खेत कितने पर उठते हैं और क्या निकासी होती है। ज़ालिम ने बना बनाया खेल बिगाड़ दिया।
जिरह ख़त्म होने के बाद अलगू ने फ़ैसला सुनाया। लहजा निहायत संगीन और तहक्कुमाना था।
“शेख़ जुम्मन, पंचों ने इस मुआमले पर अच्छी तरह ग़ौर किया। ज़्यादती सरासर तुम्हारी है। खेतों से माक़ूल नफ़ा होता है। तुम्हें चाहिए कि ख़ाला जान के माहवार गुज़ारे का बंदोबस्त कर दो। इस के सिवाए और कोई सूरत नहीं, अगर तुम्हें ये मंज़ूर नहीं तो हिबा-नामा मंसूख़ हो जाएगा।”
जुम्मन ने फ़ैसला सुना और सन्नाटे में आ गया। अहबाब से कहने लगा, “भई इस ज़माने में यही दोस्ती है कि जो अपने ऊपर भरोसा करे। उसकी गर्दन पर छुरी फेरी जाये। इसी को नैरंगी-ए-रोज़गार कहते हैं, अगर लोग ऐसे दग़ाबाज़ जौ-फ़रोश गंदुम-नुमा न होते तो मुल्क पर ये आफ़तें क्यों आतीं, ये हैज़ा और प्लेग इन्ही मक्कारियों की सज़ा है।”
मगर राम धन मिस्र और फ़तह ख़ान और जग्गू सिंह इस बे-लाग फ़ैसले की तारीफ़ में रत्ब-उल-लिसान थे। इसका नाम पंचायत है। दूध का दूध, पानी का पानी, दोस्ती-दोस्ती की जगह है। मुक़द्दम ईमान का सलामत रखना है। ऐसे ही सत्य बादियों से दुनिया क़ायम है वर्ना कब की जहन्नुम में मिल जाती।
इस फ़ैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ें हिला दीं। तनादार दरख़्त हक़ का एक झोंका भी न सह सका। वो अब भी मिलते थे मगर वो तीर-ओ-सिपर की तरह जुम्मन के दिल से दोस्त की ग़द्दारी का ख़्याल दूर न होता था और इंतिक़ाम की ख़्वाहिश चैन न लेने देती थी।
ख़ुश-क़िस्मती से मौक़ा भी जल्द मिल गया, पिछले साल मिस्र व बटेसर मेले से बैलों की एक अच्छी गोइयां मोल लाए थे। पछाईं नस्ल के ख़ूबसूरत बैल थे महीनों तक क़ुर्ब-ओ-जवार के लोग उन्हें देखने आते रहे ।
इस पंचायत के एक महीने बाद एक बैल मर गया। जुम्मन ने अपने दोस्तों से कहा, “ये दग़ा-बाज़ी की सज़ा है। इन्सान सब्र कर जाये, मगर ख़ुदा नेक-ओ-बद देखता है। अलगू को अंदेशा हुआ कि जुम्मन ने उसे ज़हर दिलवाया है, इसके बर-अक्स चौधराइन का ख़याल था कि उस पर कुछ कराया गया है। चौधराइन और फ़हमीन में एक दिन ज़ोर-शोर से ठनी। दोनों ख़्वातीन ने रवानी-ए-बयान की नदी बहा दी। तश्बीहात और इस्तिआरों में बातें हुईं। बारे जुम्मन ने आग बुझा दी। बीवी को डाँटा और रज़्म-गाह से हटा ले गया। उधर अलगू चौधरी से अपने डंडे से चौधराइन की शीरीं-बयानी की दाद दी।
एक बैल किस काम का। उसका जोड़ा बहुत ढ़ूँढ़ा मगर न मिला। नाचार उसे बेच डालने की सलाह हुई। गाँव में एक समझू सेठ थे। वो यक्का गाड़ी हाँकते थे। गाँव में गुड़-घी भरते और मंडी ले जाते। मंडी से तेल-नमक लाद कर लाते और गाँव में बेचते थे। उस बैल पर उनकी तबीयत लहराई, सोचा उसे ले लूँ, तो दिन में बिला किसी मिन्नत के तीन खेवे हों। नहीं तो एक ही के लाले रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दौड़ाया। दाम के लिए एक महीने का वादा हुआ। चौधरी भी ग़रज़-मंद थे घाटे की कुछ परवाह न की।
समझू ने नया बैल पाया तो पाँव फैलाए, दिन में, तीन-तीन, चार-चार खेवे करते, न चारे की फ़िक्र थी न पानी की। बस खेवों से काम था। मंडी ले गए, वहाँ कुछ सूखा भुस डाल दिया और ग़रीब जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया।
अलगू चौधरी के यहाँ थे तो चैन की बंसी बजती थी। रातिब पाते, साफ़ पानी, दली हुई अरहर, भूसे के साथ खली, खुबी कभी कभी घी का मज़ा भी मिल जाता। शाम-सवेरे एक आदमी खरेरे करता। बदन खुजलाता, झाड़ता, पोंछता, सहलाता, कहाँ वो नाज़-ओ-नेअमत कहाँ यह आठों पहर की रपट, महीना भर में बेचारे का कचूमर निकल गया। यक्का का जुआ देखते ही बेचारे का हाव छूट जाता। एक-एक क़दम चलना दूभर था। हड्डियाँ निकल आई थीं, लेकिन असील जानवर, मार की ताब न थी।
एक दिन चौथे खेवे में सेठ जी ने दूना बोझ लादा, दिन-भर का थका जानवर, पैर मुश्किल से उठते थे। उस पर सेठ जी कोड़े रसीद करने लगे। बैल जिगर तोड़ कर चला। कुछ दूर दौड़ा। चाहा कि ज़रा दम ले, इधर सेठ जी को जल्द घर पहुँचने की फ़िक्र, कई कोड़े बेदर्दी से लगाए, बैल ने एक-बार फिर ज़ोर लगाया मगर ताक़त ने जवाब दे दिया। ज़मीन पर गिर पड़ा और ऐसा गिरा कि फिर न उठा।
सेठ ने बहुत मारा-पीटा, टाँग पकड़ कर खींची, नथनों में लकुटी खोंस दी, मगर लाश न उठी तब कुछ अंदेशा हुआ ग़ौर से देखा बैल को खोल कर अलग किया और सोचने लगे कि गाड़ी क्यूँकर घर पहुँचे, बहुत चीख़े और चिल्लाए मगर देहात का रास्ता, बच्चों की आँख है सर-ए-शाम से बंद, कोई नज़र न आया क़रीब कोई गाँव भी न था। मारे गु़स्से के मुए बैल पर और दुर्रे लगाए, ससुरे तुझे मरना था तो घर पर मरता। तूने आधे रास्ते में दाँत निकाल दिए। अब गाड़ी कौन खींचे? इस तरह ख़ूब जले-भुने कई बोरे गुड़ और कई कनस्तर घी के बेचे थे। दो-चार सौ रुपये कमर में बंधे हुए थे, गाड़ी पर कई बोरे नमक के थे छोड़कर जा भी न सकते, गाड़ी पर लेट गए, वहीं रत-जगा करने की ठान ली और आधी रात तक दिल को बहलाते रहे।
हुक़्क़ा पिया, गाया, फिर हुक़्क़ा पिया, आग जलाई, तापा। अपनी दानिस्त में वो तो जागते ही रहे। मगर जब पौ-फटी चौंके और कमर पर हाथ रखा, तो थैली न-दारद, कलेजा सन से हो गया, कमर टटोली। थैली का पता न था घबराकर इधर-उधर देखा, कई कनस्तर तेल के भी ग़ायब थे। सर पीट लिया, पछाड़ें खाने लगे। सुबह को ब-हज़ार ख़राबी घर पहुंचे।
सेठानी जी ने ये हादिसा-ए-अलमनाक सुना तो छाती पीट ली, पहले तो ख़ूब रोईं तब अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगीं। हिफ़्ज़-ए-मा-तक़द्दम की सूझी, निगोड़े ने ऐसा मनहूस बैल दिया कि सारे जन्म की कमाई लुट गई।
इस वाक़िया को कई माह गुज़र गए, अलगू जब अपने बैल की क़ीमत माँगते तो सेठ और सेठानी दोनों झल्लाए हुए कुत्तों की तरह चढ़ बैठे। यहाँ तो सारे जन्म की कमाई मिट्टी में मिल गई, फ़क़ीर हो गए। उन्हें दाम की पड़ी है। मुर्दा मनहूस बैल दिया था, इस पर दाम माँगते हैं। आँख में धूल झोंक दी। मरा हुआ बैल गले बांध दिया। निरा पोंगा ही समझ लिया है। किसी गड्ढे में मुँह धो आओ तब दाम लेना। सब्र न होता हो तो हमारा बैल खोल ले जाओ महीने के बदले दो महीने जोत लो और क्या लोगे? इस फ़याज़ाना फ़ैसले के क़दर-दान हज़रात की भी कमी न थी। इस तरह झड़प सुनकर चौधरी लौट आते मगर डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान काम न था।
एक बार वह भी बिगड़े, सेठ जी गर्म हो पड़े। सेठानी जी जज़्बे के मारे घर से निकल पड़ीं, सवाल-ओ-जवाब होने लगे। ख़ूब मुबाहिसा हुआ, मुजादिला की नौबत आ पहुंची, सेठ जी ने घर में घुस कर किवाड़ बंद कर लिये। गाँव के कई मुअज़्ज़िज़ आदमी जमा हो गए। दोनों फ़रीक़ को समझाया। सेठ जी को दिलासा देकर घर से निकाला और सलाह दी कि आपस में सर फुटव्वल से काम न चलेगा। इस से क्या फ़ायदा, पंचायत कर लो जो कुछ तय हो जाएगा, उसे मान जाओ। सेठ जी राज़ी हो गए। अलगू ने भी हामी भरी, फ़ैसला हो गया। पंचायत की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों फ़रीक़ ने ग़ोल-बंदियाँ शुरू कीं। तीसरे दिन उसी सायेदार दरख़्त के नीचे फिर पंचायत बैठी।
वही शाम का वक़्त था, खेतों में कव्वों की पंचायत लगी हुई थी। अम्र-ए-मुतनाज़ा ये था। मटर-फलियों पर उसका जायज़ इस्तिहक़ाक़ है, या नहीं और जब तक ये मसअला तय न हो जाये वो रखवाले लड़के की फ़र्याद-ए-बे-दार पर अपनी बलाग़त-आमेज़ नाराज़गी का इज़हार ज़रूरी समझते थे।
दरख़्त की डालियों पर तोतों में ज़बरदस्त मुबाहिसा हो रहा था। बहस तलब ये अम्र था कि इन्सान को उन्हें मिन हैस-इल-क़ौम बे-वफ़ा कहने का क्या हक़ हासिल है।
पंचायत पूरी आ बैठी, तो राम धन मिस्र ने कहा, “अब क्यों देर की जाये, बोलो चौधरी किन-किन आदमियों को पंच बदते हो?”
अलगू ने मुन-कसिराना अंदाज़ से जवाब दिया, “समझू सेठ ही चुन लें।”
समझू सेठ खड़े हो गए और कड़क कर बोले, “मेरी तरफ़ से शेख़ जुम्मन का नाम रख लो।”
अलगू ने पहला नाम जुम्मन का सुना तो कलेजा धक से हो गया, गोया किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया, राम धन मिश्र अलगू के दोस्त थे। तह पर पहुँच गए, बोले, “चौधरी तुमको कोई उज़्र तो नहीं है।”
चौधरी ने मायूसाना अंदाज़ से जवाब दिया, “नहीं मुझे कोई उज़्र नहीं है।”
इसके बाद चार नाम और तज्वीज़ किए गए। अलगू पहला चरका खाकर होशियार हो गए थे, ख़ूब जाँच कर इंतेख़ाब किया। सिर्फ़ सरपंच का इंतेख़ाब बाक़ी था। अलगू इस फ़िक्र में थे, कि इस मरहले को क्यूँकर तय करूँ कि यकायक समझू सेठ के एक अज़ीज़ गुदड शाह बोले, “समझू भाई, सरपंच किसे बनाते हो?”
समझू खड़े हो गए और अकड़कर बोले, “शेख़ जुम्मन को।”
राम धन मिस्र ने चौधरी की तरफ़ हमदर्दाना अंदाज़ से देखकर पूछा, “अलगू तुम्हें कोई उज़्र हो तो बोलो।”
अलगू ने क़िस्मत ठोंक ली, हसरत-नाक लहजे में बोले, “नहीं उज़्र कोई नहीं है।”
अपनी ज़िम्मादारियों का एहसास अक्सर हमारी तंग-ज़र्फ़ियों का ज़बरदस्त मुसलेह होता है और गुमराही के आलम में मोअतबर रहनुमा।
एक अख़बार नवीस अपने गोशा-ए-आफ़ियत में बैठा हुआ मजलिस-ए-वुज़रा को कितनी बेबाकी और आज़ादी से अपने ताज़ियाना क़लम का निशाना बनाता है मगर ऐसे मवाक़ेअ भी आते हैं जब वो ख़ुद मजलिस-ए-वुज़रा में शरीक होता है। इस दायरे में क़दम रखते ही उसकी तहरीर में एक दिल पज़ीर मतानत का रंग पैदा होता है, ये ज़िम्मादारी का एहसास है।
एक नौजवान आलम-ए-शबाब में कितना बेफ़िक्र होता है। वालेदैन उसे मायूसाना निगाहों से देखते हैं। उसे नंग-ए-ख़ानदान समझते हैं। मगर थोड़े ही दिनों में वालदैन का साया सर से उठ जाने के बाद वही वा-रफ़्ता मिज़ाज, नंग-ए-ख़ानदान कितना सलामत-रू, कितना मोहतात हो जाता है। ये ज़िम्मादारी का एहसास है, ये एहसास हमारी निगाहों को और वसीअ कर देता है, मगर ज़बान को महदूद।
शेख़ जुम्मन को भी अपनी अज़ीमुश्शान ज़िम्मेदारी का एहसास हुआ। उसने सोचा मैं इस वक़्त इन्साफ़ की ऊँची मस्नद पर बैठा हूँ। मेरी आवाज़ इस वक़्त हुक्म-ए-ख़ुदा है और ख़ुदा के हुक्म में मेरी नियत को मुतलक़ दख़्ल न होना चाहिए। हक़ और रास्ती से जौ भर टलना भी मुझे दुनिया और दीन दोनों ही में स्याह बना देगा।
पंचायत शुरू हुई, फ़रीक़ैन ने अपने हालात बयान किए, जिरह हुई, शहादतें गुज़रीं। फ़रीक़ैन के मददगारों ने बहुत खींच-तान की जुम्मन ने बहुत ग़ौर से सुना, और तब फ़ैसला सुनाया।
“अलगू चौधरी और समझू सेठ, पंचों ने तुम्हारे मुआमले पर ग़ौर किया, समझू को बैल की पूरी क़ीमत देना वाजिब है, जिस वक़्त बैल उनके घर आया। उसको कोई बीमारी न थी। अगर क़ीमत उस वक़्त दे दी गई होती तो आज समझू उसे वापस लेने का हरगिज़ तक़ाज़ा न करते।”
राम धन मिस्र ने कहा, “क़ीमत के अलावा उनसे कुछ तआवुन भी लिया जाये, समझू ने बैल को दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला।”
जुम्मन ने कहा, “इसका अस्ल मुआमले से कोई ताल्लुक़ नहीं है।” गुदड़ शाह ने कहा, “समझू के साथ कुछ रिआयत होनी चाहिए। उनका बहुत नुक़्सान हुआ है और अपने किए की सज़ा मिल चुकी है।”
जुम्मन बोला, “उसका भी अस्ल मुआमले से कोई ताल्लुक़ नहीं। ये अलगू चौधरी की भलमनसी पर मुनहसिर है। ये फ़ैसला सुनते ही अलगू चौधरी फूले न समाये।” उठ खड़े हुए, और ज़ोर-ज़ोर से हाँक लगाई, “पंच परमेश्री की जय…”
आसमान पर तारे निकल आए थे, इस नारे के साथ उनकी सदा-ए-तहसीन भी सुनाई दी। बहुत मद्धम गोया समुंद्र पार से आई हो।
हर शख़्स जुम्मन के इन्साफ़ की दाद दे रहा था। “इन्साफ़ इसको कहते हैं, आदमी का ये काम नहीं, पंच में परमात्मा बसते हैं। ये उनकी माया है पंच के सामने खोटे को खरा बनाना मुश्किल है।”
एक घंटे के बाद जुम्मन शेख़ अलगू के पास आए और उनके गले से लिपट कर बोले, भय्या जब से तुमने मेरी पंचायत की है मैं दिल से तुम्हारा दुश्मन था। मगर आज मुझे मालूम हुआ कि पंचायत की मस्नद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता है न दुश्मन। इन्साफ़ के सिवा और उसे कुछ नहीं सूझता, ये भी ख़ुदा की शान है, आज मुझे यक़ीन आ गया कि पंच का हुक्म अल्लाह का हुक्म है।”
अलगू रोने लगे। दिल साफ़ हो गए। दोस्ती का मुरझाया हुआ दरख़्त फिर से हरा हो गया, अब वो बालू की ज़मीन पर नहीं, हक़ और इन्साफ़ की ज़मीन पर खड़ा था।