चुनाव परिणाम एक परिपक्व होते भारतीय लोकतंत्र के द्योतक
Eighteenth Lok Sabha : अठारवीं लोकसभा के चुनाव परिणाम एक परिपक्व होते भारतीय लोकतंत्र के द्योतक हैं क्योंकि जनमानस ने सभी विशेषज्ञों के अनुमान से अलग अपना निर्णय सुनाया है. न किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत दिया है, न देश के विभिन्न राज्यों में एकरूप निर्णय दिया है. जो नतीजे आये हैं वे कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं. सबसे पहले तो जनता ने इस सूझ-बूझ का परिचय दिया है जिससे कोई भी शासक अपने सत्तामद और तिकड़मी अहंकार में यह न समझे कि उसे अधिक समय तक बहकावे और भटकावे में रखा जा सकता है. चाहे ‘गरीबी हटाओ’ वाले हों जिन्होंने जनसमर्थन का उपयोग अनीति द्वारा सत्ता-सुरक्षा के लिए किया, चाहे ‘धर्मप्राण’ भारतीय जनता को आस्था की राजनीति द्वारा मोहित करने वाले हों जिन्होंने बहुमत की अवधारण को ‘बहुसंख्यक’ के ध्रुवीकरण का रूप देकर सत्ता पर अजर-अमर होने का दावा किया. एक ने आपातकाल द्वारा विपक्ष का दमन और नागरिक अधिकारों का हनन किया, दूसरे ने संवैधानिक और न्यायिक संस्थाओं का दुरुपयोग करके विपक्ष का दमन और नागरिक अधिकारों का हनन किया. पहली सत्ता के शीर्ष पर इंदिरा गाँधी जैसी ताकतवर प्रधानमंत्री के विराजमान होने से फर्क नहीं पड़ा, दू सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी जैसे ताकतवर प्रधानमंत्री के विरमान होने से भी फर्क नकही पड़ा. न्यायलय ने एक के चुनाव को ही अवैध बताया, दूसरे के कार्यकलापों को नागरिक अधिकार के उल्लंघन के लिए बारम्बार फटकारा. जनता के निर्णय और भारतीय न्याय-विधान के दृष्टिकोण में अनोखी समानता है!
जनता ने अपने विवेक से सत्ता के मुकाबले विपक्ष की भूमिका अदा की
इन चुनावों से यह स्पष्ट है कि केन्द्रीय सत्ता के मुकाबले कोई संगठित विपक्ष नहीं था बल्कि जनता ने अपने विवेक से सत्ता के मुकाबले विपक्ष की भूमिका अदा की है. इसीलिए प्रांतीय विभिन्नता और क्षेत्रीय असंतुलन की अभिव्यक्ति इन नतीजों से अच्छी तरह देखी जा सकती है. बंगाल में जनता ने ममता के कुशासन से असंतोष जताया है तो मोदी के सुशासन को भी नहीं अपनाया है. केरल में माकपा को यह सीख दी है कि सत्ता के लिए संगठन में गुटबाजी का असर हानिकर होता है—यही कारण है कि अच्च्युतानंदन की लोकप्रियता को विजयन नहीं पा सके. इसी प्रकार, जहाँ जो राजनितिक विकल्प मिला, लोगों ने उसे चुना. अपवाद हो सकते हैं. जनतंत्र में असली भाग्य-विधाता जनता है, यह चुनाव भली-भांति स्पष्ट करता है. सबसे दिशाबोधक हिंदीप्रदेश है जिसे विशेषज्ञ और ज्ञानी गोबरपट्टी कहते हैं और राजनीतिज्ञ धर्म के अफीम की प्रयोगशाला समझते है. जिस उत्तरप्रदेश पर सबके दांव लगे थे उसने अयोध्या की सफलता और मथुरा-काशी की योजना द्वारा जीवन के वास्तविक सवालों की अवहेलना करने वाली राजनीति को शिक्षा दी है, अगर वे ग्रहण करने की योग्यता रखते हों. बिहार ने केन्द्रीय सत्ता के काल्पनिक-धार्मिक एजेंडे के मुकाबले रोजी-रोटी के सवालों और समाज की वास्तविकता को वरीयता दी है हालाँकि लालू यादव के गुंडाराज को वह भूली नहीं है. मध्यप्रदेश सामंती प्रभाव में अब तक ज्यादा फँसा है और राजनीतिक चेतना में भी ज्यादा पिछड़ा है, वहाँ पारंपरिक रूप से कांग्रेस के प्रतिपक्ष के रूप में जनसंघ/ भाजपा ही रहे हैं इसलिए निर्विकल्प जनता के निर्णय को समझकर विकल्प तैयार करना राजनीतिज्ञों की ज़िम्मेदारी है.
जनता का निर्णयात्मक व्यवहार
एक ओर राजनितिक परिस्थितियों का यथार्थ और दूसरी ओर जनता का निर्णयात्मक व्यवहार, इन दोनों के बीच द्वंद्वात्मक सम्बन्ध दिखाई देता है. धार्मिक भावनाओं को इस्तेमाल करके नफ़रत के बीज बोना और सांप्रदायिक मानसिकता का राजनीतिक इस्तेमाल करना सबसे सफल गुजरात में रहा जिसे ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ कहा गया. गुजरात ऐतिहासिक दृष्टि से संपन्न और व्यवसाय-प्रचुर क्षेत्र रहा है लेकिन वहाँ से निकले सफल ‘प्रयोगवादी’ सबसे पिछड़ी मानसिकता का परिचय देते हुए स्वयं ईश्वर के आसन पर जा बैठे! अगर संकेतों को समझा जाय तो ये जनादेश उन स्वयंभू भगवानों को रास्ता दिखाते हैं, वे चाहे सत्ता में बैठे हों या मठों या आश्रमों में. उत्तरप्रदेश में छह केन्द्रीय मंत्रियों का चुनाव हार जाना और कर्णाटक में पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा के पौत्र प्रज्ज्वल रेवन्ना की शर्मनाक पराजय इस बात के द्योतक हैं कि धर्म का सहारा लेकर व्यभिचार का जाल फैलाने वाले आसाराम-रामरहीम से लेकर राजनितिक शक्ति का उपयोग करके स्त्रियों की अस्मिता को छिन्न-भिन्न करने वालों या उनके संरक्षकों को जनता ठुकरा रही है. इसलिए यह देखना चाहिए कि भारत की अशिक्षित-दरिद्र जनता का विवेक कितना मूल्यवान है. उसके निर्णय में असंगतियाँ ऐतिहासिक कारणों से हैं.
‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ कांग्रेस का देशव्यापी पुनर्जीवन
साथ ही, यह सन्देश भी भुलाया नहीं जा सकता कि भारत ‘कांग्रेस-मुक्त’ नहीं हुआ बल्कि ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ कांग्रेस का देशव्यापी पुनर्जीवन हुआ है. दक्षिणपंथी राजनीति और वामपंथी राजनीति के अतिवाद का समाधान जनता बाकी ‘मध्यमार्गी’ दलों में नहीं देखती. इसके पीछे दो ठोस कारण हैं. एक, जातिवाद और नरम साम्प्रदायिकता का उपयोग करते हुए भी कांग्रेस न पूर्णतः जातिवादी या सांप्रदायिक दल है, न संगठन की प्राथमिकता के नामपर बंगाल जैसी अराजकता या केरल जैसी गुटबाजी में जनहित भूल जाती है. आपस में लड़ते-भिड़ते साथ चलते हुए जनता को साँस लेने लायक परिस्थियाँ देने का वातावरण संविधान के माध्यम से कांग्रेस ने ही बनाया है. जनतंत्र के लिए जितना महत्वपूर्ण जनता का जाग्रत विवेक है, उतना ही महत्वपूर्ण विपक्ष की देशव्यापी मौजूदगी है. दूसरा, इस देशव्यापी मौजूदगी का श्रेय राहुल गाँधी की न्याय-यात्राओं को है. देश को समझने के लिए, जनता की की मनोभावना से जुड़ने के लिए गाँधी जी के बाद राहुल ने ही ऐसा अभियान चलाया.
अरबों रुपये खर्च करके ‘पप्पू’ बनाया था
इसी से यह सन्देश भी निकालता है कि जिस राहुल को सत्ताधारियों ने अरबों रुपये खर्च करके ‘पप्पू’ बनाया था, उसी को इस चुनाव में ‘मोदी बनाम राहुल’ बताकर परिष्ठित करने को बाध्य हुए. यह फर्क मीडियाऔर प्रचारतंत्र की ताकत से जनसंपर्क की ताकत का अंतर स्पष्ट करता है. इसीलिए जनता का विवेक महत्वपूर्ण तो है ही, निर्णायक भी है. इस जनता को मुख्यधारा मीडिया और ट्रोल सेना के बलपर काबू में रखने की कोशिश लगातार की गयी. लेकिन जनता ने प्रचार के इन दोनों साधनों को व्यर्थ सिद्ध करते हुए सोशल मीडिया को अधिक अपना और भरोसेमंद माना. केवल पूँजी की शक्ति से चलने वाले निजी चैनलों के सामानांतर छोत्र-छोटे सोशल मीडिया चैनलों ने राहुल की यात्राओं से लेकर सत्ता के अत्याचारों तक हर पहलू से लोगों को अवगत रखा. यही कारण है कि जनता किसी प्रेरित प्रचार की जगह राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दों से परिचालित हुई. महँगाई, बेरोज़गारी, गरीबी, किसानों से छल और विषमता उसके लिए वास्तविक चिंताएँ थीं, मंदिर और धर्म नहीं. संयोग नहीं है कि अयोध्या के जिस राममंदिर पर सत्ताधारियों की आशा टिकी थी, उस अयोध्या में भाजपा हार गयी. जनता की यह जागरूकता न केवल लोकतंत्र के जीवन के लिए आवश्यक है बल्कि यह उसकी सुन्दरता भी है.
‘मुस्लिन लीग’ से ‘मुजरा’ तक मोदीजी नदे ‘म-कारी’ का भरपूर परिचय दिया
जैसे-जैसे चुनाव प्रक्रिया में जनमत अपने विपरीत दिखाई दिया, वैसे-वैसे अकमेव नेता ने ‘मुस्लिन लीग’ से ‘मुजरा’ तक मोदीजी नदे ‘म-कारी’ का भरपूर परिचय दिया. समाजवैज्ञानिकों के लिए यह मोदी की छवि और विपक्ष के मुद्दों के बीच चुनाव है. इसमें जनता ने अपनी परिपक्वता से लोकतंत्र के भविष्य के प्रति आश्वस्तता पैदा की है. उसने यह भी आवश्यक कर दिया है कि चाहे मोदी जनादेश के संकेतों को अनदेखा करके फिर सत्तानशीन हों चाहे विपक्षी नए सहयोगी जोड़ कर सत्ता पर आयें, एनडीए या इण्डिया गठबंधन में कोई सरकार बनाये, यह लिए अनिवार्य है कि चुनावी वादों और गारंटियों को लागू करे, भटकाने और बहकाने की योग्यता पर भरोसा न करे! न यह सोचे कि खुद बड़े पूँजीपतियों से सहयोग करते हुए विपक्ष के एकाउंट सील करने से लेकर विरोधियों को जेल भेजने तक दमन के ज़रिये जनमत हासिल कर सकेगा. इन शिक्षाओं को ग्रहण करके जब शासन चलेगा तब सत्ता को लोकहितकारी कर्त्तव्य कने होंगे और जनता को भी राहत मिलेगी