325
अतीत के पदचिन्ह
एकाएक विरह से भर उठे हैं,
जैसे, तुम्हारे अश्रु मुझसे
बहुत रूठे रूठे हैं।
अब याद नहीं आती
सवेरे में मंदिर की वह घंटी की आवाज,
खो गई है कोयल के
दिनकर की उज्ज्वल किरण में
एक दूसरे से प्रेम की बातें करना,
जीवन की पगडंडियों पर
स्नेह का सागर भरना।
सुबह फोन बजते ही
वह मधुर मधुर बांसुरी की धुन,
तुम्हारा वो हँसना
जैसे पायल की रुन झुन।
इन सजल नेत्रों में
शामिल है वर्षों का प्यार,
दीप सी भोर से
स्याह रात्रि का इंतजार।
और अब
यह साझा संवाद :
मानो,
पुरुष और स्त्री के मध्य
कुंए सा अंतर स्थापित हो गया है,
जैसे :
तुम्हारा, मेरे समीप होकर भी
प्रेम कोसों दूर खो गया है।
गहराते अंधकार में :
वीणा के कोमल स्वरों सी, तुम
मेरे कानों में विराजमान रहीं।
एकाएक ~
वह स्वर, कोहराता गया
मेरा प्रेम छिन्न भिन्न कर गईं।
वे कल्पनाएँ :
जहां तुम तैरती थी,
मेरे श्वेत अंतर्मन की स्लैट पर।
वे संवेदनाएं :
क्या आज भी सुनती हो,
वही रिंगटोन
जो तुमने लगाई थी
हमारी प्रथम भेंट पे।
यह सब धूमिल सा है
कुछ अवशेषों की कतरन समान,
जैसे, किसी ने कान्हा
बांसुरी के स्वर का किया अपमान।
तुमने मुझे, पुरुष सा नहीं सुना,
मैंने तुमको, स्त्री सा नहीं कहा।
तुम राधे भाँति ~
मेरी कोमल प्रेयसी बन गई।
मैं कृष्णा भाँति ~
सागर के समीप, बेसुध रेत आई।
आज :
मौलिकता के सभी प्रमाण पत्र
मुझे तुमसे भय बनाने लगे हैं,
जहां.. आज भी
मेरी ही प्रेयसी होने का अर्थ समझाने लगे हैं।
क्या ~ वे सब संवाद पुनः स्थापित हो पायेंगे,
फिर : संवेदना के पुष्प
उसी दरख़्त से, मेरे जीवन के कहलाएंगे..।